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यह मैं हूँ — केनाडा के ख़ूबसूरत मुश्क में

मैं आप के साथ बांटना चाहता हूँ कि किस्त्ढ़ इंजील की ख़ुश ख़बरी मेरे लिए बा –मायने साबित हुई । मैं सोचता हूँ कि इन्टरनेट के इस इत्तला की जगह पर तहरीरों को बेहतर तरीक़े से समझने का मौक़ा अता करेगा ।

बुनयादी मालूमात —— मैं केनाडा में रहता हूँ । मैं शादी शुदा हूँ और हमारा एक बेटा है । मैं ने केनाडा के टोरांटो यूनिवरसिटी में तालीम पाई । इस युनिवर्सिटी का नाम न्यू बर्न्स विक एंड अकाडीया युनिवर्सिटी है । मेरे पास युनिवर्सिटी से हासिल शुदा इंजीनेरिंग के तजरुबे की डिगरियां ओरिस पेशे से मुताल्लिक़ डगर डिगरियां भी मौजूद हैं जो वसी अ तोर से कम्पयूटर और सॉफ्टवेयर रियाज़ियाती मॉडलिंग से ताल्लुक़ रखता है ।)

एक हक़ याफ़्ता जवानी में मुज़तरब पाया जाना

मेरी परवरिश आला मुतवस्सित तबक़े के पेशावर ख़ानदान में हुई । मई पैदाइशी स्वेडन का हूँ । जब मैं जवान था तभी मेरे ख़ानदान ने केनाडा के लिए  तब्दील वतन कर लिया था । फिर ग़ैर मुल्कों का दौरा करते हुए बड़ा हुआ । जिनमें अल्जीरिया , जरमनी और केमरून शामिल हैं । और आख़िर कार युनिवर सिटी की तालीम पाने के गरज़ से वापस केनाडा आना पड़ा । दीगर लोगों की तरह ही मैं भी एक तजरुबे की ज़िन्दगी जीना चाहता था —अभी भी चाहता हूँ — ऐसी ज़िन्दगी जो दूसरों के लिए किनाअत के साथ हो , इत्मीनान का बाइस हो , बा मक़सद और बा मायने हो । इसके साथ ही जो दुसरे लोगों से जुड़ा हुआ ख़ास तोर से मेरे ख़ानदान और दीगर दोस्तों के साथ ।

इन मुखतलिफ़ मुमालिक में रहते हुए जो मुखतलिफ़ मज़हब से ताल्लुक़ रखते हैं इसके अलावा जो दुनयावी लोग हैं —- और इस लिए कि मैं मुताला का आरज़ूमंद हूँ । जो आख़िर कार हक़ीक़त है मई फ़रक फ़रक नज़रिये ज़ाहिर करता था । यही बातें थीं जो मुझको भरपूर जिंदगी की तरफ़ ले गईं । जो मैं ने मशाहिदा किया वह यह था कि हालांकि मैं (और दीगर मगरिबी लोगों में से अक्सर लोग) बे नज़ीर दौलत तकनीकी इल्म और उन निशानों के हुसूल के लिए चुनाव की आज़ादी बजाहिर मह्मल बात जो उन्हें नज़र आतित्हीं वह बहुत मुस्तस्ना थे । मैं ने गौर किया कि ख़ानदानी रिश्ते पहले की पीढ़ी के बनिसबत बहुत जियादा काबिल-ए-इस्तेमाल और आरज़ी हैं । मैं ने सुन रखा था कि अगर हम इस से ज़ियादा हासिल कर सकते थे तो उंचाई पर पहुँच जाते । मगर कितना ज़ियादा ? किस चीज़ में ज़ियादा? क्या माली हालात की तरफ़ ? क्या साइंस के इल्म में ? क्या तकनीकी इल्म की तरफ़ ?क्या ऐशो इशरत की तरफ़ ? क्या रुतबे में ?

एक जवान शख्स होने के नाते इन सवालात ने धुन्दले ख़यालात वाले मेरे मुज़तरब होने को बढ़ावा दिया । जबकि मेरे वालिद साहिब अल्जीरिया में एक मशवरा देने वाले जिलावतन इंजीनियर थे । मैं दीगर अमीर तबक़ों के हक याफ़ता और तालीम याफ़ता मगरिबी जवानों के ताल्लुक़ात में रहा करता था । मगर वहां मेरी ज़िन्दगी कुछ निकलने के रास्तों के साथ बहुत सीधी साधी नज़र आती थी जिस से कि थोड़ा बहुत हमारा दिल बहल जाता था । तो फिर मैं और मेरे दोस्त ऐसे दिनों की ख्वाहिश रखते जिन में हम अपने मुल्क को वापस लौट जाएं , आज़ादी के साथ टी . वी. , अच्छे खानों अच्छे मोकों और आज़ाद भरी मग़रिबी ज़िन्दगी का फ़ाइदा उठाएं —- तभी हम आसूदा हो सकते थे । ताहम जब मैं यूरोप और केनाडा का दौरा करता था तब भी कुछ दिनों बाद वही मुज़तरब मेरी जिंदगी में वापस आजाता था और मेरी हालत पहले से ज़ियादा ख़राब हो जाती थी । मैं ने यह भी गौर किया कि जिन लोगों के दरमियान मै रहता था वह पूरे वक़्त मेरे साथ रहते थे । जो कुछ उनके पास था (वह किसी भी मेयार से ज़ियादा था और हमेशा ही ज़ियादा की ज़रुरत होती थी ।

मुझे जो एक हक़ीक़ी और आसूदा ज़िंदगी की तलाश थी मैं ने सोचा की मैं उसे प् लूँगा जब मेरे पास एक मशहूर ख़ूबसूरत दोस्त थी । और थोड़ी देर के लिए ऐसा लगता था की कोई चीज़ मेरे अन्दर है । मगर कुछ महीनों बाद वही मुज़तरब वापस लौट रहा था । मैं ने सोचा था की किसी अछे स्कूल में दाख़िला लेने से मैं उसे पालूंगा —- फिर मेरा ध्यान गाड़ी के  लाईसेन्स पर गया कि अगर यह मिलजाए तो मेरी यह जुस्तजू ख़त्म होजाएगी । मगर मै नाकाम रहा । अब मैं थोड़ा बड़ा होगया । मैं ने लोगों से नौकरी पेशे से अलाहिदा (रिटायर) होने की बात सुनी जिस से आसूदा होने का टिकट मिल जाता है । क्या ऐसा है ? क्या हम अपनी ज़िन्दगियों को एक के बाद दूसरी चीज़ों का तआक़ुब करने में गुज़ारते हैं जो हमारे अतराफ़ किसी कोने में है और वह हमें दिया जाता है और फिर हमारी ज़िंदगियाँ यूँही ख़तम होजाती हैं !यह बात बे नतीजा और बेहद फ़ुज़ूल नज़र आता है !

इन हालात के दौरान मैं अल्लाह (ख़ुदा) पर ईमान ले आया । मेरे मगरिबी होने के साथ सा  थ मेरे आस पास दुनयावी लोग यहाँ तक कि मुलहिद भी पाए जाते थे (यानी वह जिनको ख़ुदा पर यक़ीन नहीं होता है) । बहुत ज़ियादा यक़ीन के साथ ऐसा नज़र आता था कि य्ह्पूरी दुनया और जो कुछ इसमें पाया जाता है मौक़े से ज़हूर में आया है । मगर इस मज़हब के ईमान के बावजूद भी जैसे जैसे मैं अपने मुज़तरब से आजाधोने की कोशिश कर रहा था मुझे अंदरूनी हल चल का तजरुबा होता चला गया । जिसतरह मैं ऊपर बयान कर चुका हूँ कि करने , बोलने , या छ्जों की बाबत सोचना यह बातें मुझे शर्मिंदगी से भर कर अपने आप में ख़त्म हो जाती थी । वह ऐसा था मेरी एक पोशीदा ज़िन्दगी जिस की बाबत दुसरे लोग नहीं जानते थे । मगर यह जिंदगी हसद से भरी थी । (मैं वह चाहता था जो दूसरों के पास था) । ग़ैर वफ़ादारी – (मैं वक़्त के होते सचाई को छिपाता था) लड़ाई झगड़ा करता । (मैं आसानी से किसी भी बहस में जो मेरे ख़ानदान में होती थी शामिल हो जाता था । जिनसी बद अखलाक़ी – अक्सर जो मैं टी वी में देखता था —-इस से पहले मैं यह चीज़ इन्टरनेट में देखता था — (या  पढ़ने के ज़रिये या दमाग़ में तसव्वुर करने के ज़रिये) –और खुद ग़रजी – मैं जानता था कि हालांकि दीगर बहुत से लोग ज़िन्दगी के मेरे इस हिस्से को नहीं देखते थे मगर अल्लाह देखता था । यह बात मुझे ग़ैर मुतमइन कर देती थी । दरअसल कई एक सूरत हाल ऐसे थे जो मेरे लिए आसान था कि मैं अल्लाह के वजूद पर ईमान न रखूं । क्यूंकि बाद में इस शर्मसारी के गुनाह उस के सामने एतराफ़ करने के लिए नज़र अंदाज़ कर सकूं । ज़बूर शरीफ़ में हज़रत दाऊद के अलफ़ाज़ की तरह मैं भी सवाल कर रहा था कि “जवान अपनी रविश को किस तरह पाक रखे ?”(ज़बूर 119:9) । जितना ज़ियादा मैं मज़हबी बन्ने की कोशिश कर रहा था , पाबंदियां जैसे दुआ करना ,ख़ुद इनकारी या मज़हबी मीटिंगों में जाना । य्ह्सारी बातें हक़ीक़त में इस कशमकश को दूर नहीं करते थे ।

हज़रत सुलेमान की हिकमत

इस दौरान इस मुज़तरब के सबब से जो मैं ने अपने में और अपने आस पास देखा और पाया वह यह है कि हज़रत दाऊद के बेटे हज़रत सुलेमान जो क़दीम इस्राईल का बादशाह था और अपनी हिकमत के लिए मशहूर था उसकी तहरीरों ने मेरे अन्दर एक गहरा असर छोड़ा और उसने कई एक किताबें लिखीं , जिन्हें ज़बूर शरीफ का एक हिस्सा भी माना जाता जहां उसने इसी मुज़ तरब का बयान किया जिन का मई तजरुबा कर रहा था –उसने लिखा

ने अपने मन से कहा, चल, मैं तुझ को आनन्द के द्वारा जांचूंगा; इसलिये आनन्दित और मगन हो। परन्तु देखो, यह भी व्यर्थ है।
मैं ने हंसी के विषय में कहा, यह तो बावलापन है, और आनन्द के विषय में, उस से क्या प्राप्त होता है?
मैं ने मन में सोचा कि किस प्रकार से मेरी बुद्धि बनी रहे और मैं अपने प्राण को दाखमधु पीने से क्योंकर बहलाऊं और क्योंकर मूर्खता को थामे रहूं, जब तक मालूम न करूं कि वह अच्छा काम कौन सा है जिसे मनुष्य जीवन भर करता रहे।
मैं ने बड़े बड़े काम किए; मैं ने अपने लिये घर बनवा लिए और अपने लिये दाख की बारियां लगवाईं;
मैं ने अपने लिये बारियां और बाग लगावा लिए, और उन में भांति भांति के फलदाई वृक्ष लगाए।
मैं ने अपने लिये कुण्ड खुदवा लिए कि उन से वह वन सींचा जाए जिस में पौधे लगाए जाते थे।
मैं ने दास और दासियां मोल लीं, और मेरे घर में दास भी उत्पन्न हुए; और जितने मुझ से पहिले यरूशलेम में थे उन से कहीं अधिक गाय-बैल और भेड़-बकरियों का मैं स्वामी था।
मैं ने चान्दी और सोना और राजाओं और प्रान्तों के बहुमूल्य पदार्थों का भी संग्रह किया; मैं ने अपने लिये गवैयों और गानेवालियों को रखा, और बहुत सी कामिनियां भी, जिन से मनुष्य सुख पाते हैं, अपनी कर लीं॥
इस प्रकार मैं अपने से पहिले के सब यरूशलेमवासियों अधिक महान और धनाढय हो गया; तौभी मेरी बुद्धि ठिकाने रही।
10 और जितनी वस्तुओं के देखने की मैं ने लालसा की, उन सभों को देखने से मैं न रूका; मैं ने अपना मन किसी प्रकार का आनन्द भोगने से न रोका क्योंकि मेरा मन मेरे सब परिश्रम के कारण आनन्दित हुआ; और मेरे सब परिश्रम से मुझे यही भाग मिला।

वाइज़ 2:1-10

धन दौलत , शोहरत , इल्म , तज्वीज़ें , ताबीरें , बीवियां , ऐशो इशरत , बादशाही , रुतबा वगैरा  हज़रत सुलेमान के पास यह सब कुछ मौजूद था —उसके ज़माने के लोगों में या आज के हमारे ज़माने में उसके जैसा कोई और शख्स नहीं था —ऐसे में आप ज़रा सोचें कि क्या वह सब लोगों से ज़ियादा आसूदा रहा होगा ? मगर उसने अपनी तहरीर को इन अलफ़ाज़ से अनजाम को पहुँचाया :

11 तब मैं ने फिर से अपने हाथों के सब कामों को, और अपने सब परिश्रम को देखा, तो क्या देखा कि सब कुछ व्यर्थ और वायु को पकड़ना है, और संसार में कोई लाभ नहीं॥
12 फिर मैं ने अपने मन को फेरा कि बुद्धि और बावलेपन और मूर्खता के कार्यों को देखूं; क्योंकि जो मनुष्य राजा के पीछे आएगा, वह क्या करेगा? केवल वही जो होता चला आया है।
13 तब मैं ने देखा कि उजियाला अंधियारे से जितना उत्तम है, उतना बुद्धि भी मूर्खता से उत्तम है।
14 जो बुद्धिमान है, उसके सिर में आंखें रहती हैं, परन्तु मूर्ख अंधियारे में चलता है; तौभी मैं ने जान लिया कि दोनों की दशा एक सी होती है।
15 तब मैं ने मन में कहा, जैसी मूर्ख की दशा होगी, वैसी ही मेरी भी होगी; फिर मैं क्यों अधिक बुद्धिमान हुआ? और मैं ने मन में कहा, यह भी व्यर्थ ही है।
16 क्योंकि न तो बुद्धिमान का और न मूर्ख का स्मरण सर्वदा बना रहेगा, परन्तु भविष्य में सब कुछ बिसर जाएगा।
17 बुद्धिमान क्योंकर मूर्ख के समान मरता है! इसलिये मैं ने अपने जीवन से घृणा की, क्योंकि जो काम संसार में किया जाता है मुझे बुरा मालूम हुआ; क्योंकि सब कुछ व्यर्थ और वायु को पकड़ना है।
18 मैं ने अपने सारे परिश्रम के प्रतिफल से जिसे मैं ने धरती पर किया था घृणा की, क्योंकि अवश्य है कि मैं उसका फल उस मनुष्य के लिये छोड़ जाऊं जो मेरे बाद आएगा।
19 यह कौन जानता है कि वह मनुष्य बुद्धिमान होगा वा मूर्ख? तौभी धरती पर जितना परिश्रम मैं ने किया, और उसके लिये बुद्धि प्रयोग की उस सब का वही अधिकारी होगा। यह भी व्यर्थ ही है।
20 तब मैं अपने मन में उस सारे परिश्रम के विषय जो मैं ने धरती पर किया था निराश हुआ,
21 क्योंकि ऐसा मनुष्य भी है, जिसका कार्य परिश्रम और बुद्धि और ज्ञान से होता है और सफल भी होता है, तौभी उसको ऐसे मनुष्य के लिये छोड़ जाना पड़ता है, जिसने उस में कुछ भी परिश्रम न किया हो। यह भी व्यर्थ और बहुत ही बुरा है।
22 मनुष्य जो धरती पर मन लगा लगाकर परिश्रम करता है उस से उसको क्या लाभ होता है?
23 उसके सब दिन तो दु:खों से भरे रहते हैं, और उसका काम खेद के साथ होता है; रात को भी उसका मन चैन नहीं पाता। यह भी व्यर्थ ही है।

वाइज़ 2 :11-23

मौत , मज़हब और बे– इंसाफ़ी —-जिंदगी की साबित क़दमी “सूरज के नीचे “

इन तमाम मामलात के साथ  साथ मैं जिंदगी के एक दुसरे पहलू से परेशान हो रहा था और यह बात हज़रत सुलेमाम को भी परेशान कर रही थी ।

19 क्योंकि जैसी मनुष्यों की वैसी ही पशुओं की भी दशा होती है; दोनों की वही दशा होती है, जैसे एक मरता वैसे ही दूसरा भी मरता है। सभों की स्वांस एक सी है, और मनुष्य पशु से कुछ बढ़कर नहीं; सब कुछ व्यर्थ ही है।
20 सब एक स्थान मे जाते हैं; सब मिट्टी से बने हैं, और सब मिट्टी में फिर मिल जाते हैं।
21 क्या मनुष्य का प्राण ऊपर की ओर चढ़ता है और पशुओं का प्राण नीचे की ओर जा कर मिट्टी में मिल जाता है? कौन जानता है?

वाइज़ 3:19 -21

सब बातें सभों को एक समान होती है, धर्मी हो या दुष्ट, भले, शुद्ध या अशुद्ध, यज्ञ करने और न करने वाले, सभों की दशा एक ही सी होती है। जैसी भले मनुष्य की दशा, वैसी ही पापी की दशा; जैसी शपथ खाने वाले की दशा, वैसी ही उसकी जो शपथ खाने से डरता है।
जो कुछ सूर्य के नीचे किया जाता है उस में यह एक दोष है कि सब लोगों की एक सी दशा होती है; और मनुष्यों के मनों में बुराई भरी हुई है, और जब तक वे जीवित रहते हैं उनके मन में बावलापन रहता है, और उसके बाद वे मरे हुओं में जा मिलते हैं।
उसको परन्तु जो सब जीवतों में है, उसे आशा है, क्योंकि जीवता कुत्ता मरे हुए सिंह से बढ़कर है।
क्योंकि जीवते तो इतना जानते हैं कि वे मरेंगे, परन्तु मरे हुए कुछ भी नहीं जानते, और न उन को कुछ और बदला मिल सकता है, क्योंकि उनका स्मरण मिट गया है।

वाइज़ 9:2-5

मैं एक मज़हबी ख़ानदान में पला बढ़ा था और अल्जीरिया में रहता था । अल्जीरिया जो कि ख़ुद ही एक मज़हबी मुल्क है । तो क्या मज़हब ही मेरे मसले का हल हो सकता था ? मगर मैं ने यह पाया कि मज़हब अक्सर ही बैरूनी या ऊपरी चीज़ है जिसको बाहरी रसम परस्ती के लिए बर्ताव किया जाता है । मगर यह हमारे दिलों को नहीं छूता । मज़हबी पाबंदियां जैसे दुआएं , चर्च जाना (या मस्जिद में जाना ) क्या यह बातें ख़ुदा के साथ क़ाबिल होने के लिए कमाया जाना काफ़ी है ? मज़हबी तोर से नेक चलन की जिंदगी जीना इंसान को बहुत ज़ियादा थका देता है । क्या किसी के पास ऐसी ताक़त है कि लगातार गुनाह से बाज़ रहे ? इस के बावजूद भी कितना कुछ मुझे गुनाह से बाज़ रहना ज़रूरी हो गया था । मज़हबी पाबन्दियाँ तकलीफ़ दह साबित होती हैं ।

और हक़ीक़त में खुदा ही इन सब का ज़िम्मेदार है तो वह इस तरह काकाम क्यूँ कर रहा है ? मैं ने खुद से पुछा । कुछ बातों को हम अपने आस पास आसानी से देख सकते हैं जैसे बे –इंसाफ़ी ,बिगाड़ ,ज़ुल्म ओ सितम वगैरह यह दुनया में अभी भी हो रहे हैं । आप देखें कि यह वाक़ियात मौजूदा दौर के नहीं बल्कि आज से 3000 साल पहले भी हज़रत सुलेमान के ज़माने में मौजूद थीं –चुनांची उस ने कहा :

16 फिर मैं ने संसार में क्या देखा कि न्याय के स्थान में दुष्टता होती है, और धर्म के स्थान में भी दुष्टता होती है। ब मैं ने वह सब अन्धेर देखा जो संसार में होता है। और क्या देखा, कि अन्धेर सहने वालों के आंसू बह रहे हैं, और उन को कोई शान्ति देने वाला नहीं! अन्धेर करने वालों के हाथ में शक्ति थी, परन्तु उन को कोई शान्ति देने वाला नहीं था।
इसलिये मैं ने मरे हुओं को जो मर चुके हैं, उन जीवतों से जो अब तक जीवित हैं अधिक सराहा;
वरन उन दोनों से अधिक सुभागी वह है जो अब तक हुआ ही नहीं, न ये बुरे काम देखे जो संसार में होते हैं॥

वाइज़ 3 :16 , 4:1-3

जो हज़रत सुलेमान के जमाने में साफ़ था वही हमारे ज़माने में भी साफ़ है ; यानी ज़िन्दगी सूरज के नीचे ज़ुल्म ओ सितम ,बे – इंसाफ़ी और बुराई के ज़रिये अलामत दी जाती है । ऐसा क्यों है ? क्या  इसका कोई हल है ? और फिर ज़िन्दगी यूंही मौत बन कर ख़त्म हो जाती है । मौत सब चीज़ों का ख़ात्मा है और मुतलक तोर से हमारी ज़िन्दगियों पर बादशाही करता है । जिसतरह हज़रत सुलेमान ने लिखा : मौत दुनया के तमाम लोगों क़िस्मत है । चाहे वह नेक शख्स हो या बुरा शख्स , मज़हब परस्त हो या ग़ैर मज़हब परस्त सब के लिए मौत एक हक़ीक़त है । मगर एक बात है जो मौत के साथ जुड़ी हुई है वह है अब्दियत का सवाल । मरने के बाद क्या मैं मक़ाम – ए – जन्नत में दाख़िल हूँगा या (बहुत ज़ियादा खतरे की दहशत के साथ) अब्दी अदालत के लिए जहन्नुम में जाऊँगा ?

ग़ैर वक़्त की तसनीफ़ में तलाश करना 

यह ज़िन्दगी में हमेशा रहने वाली आसूदगी को हासिल करने के मामले हैं । मज़हबी पाबंदियों के साथ बोझ , ज़ुल्म ओ सितम , बिगाड़ और बे इंसाफ़ी ने तमाम इंसानी तारीक को वबा के शिकंजे में कस रखा है । इस के साथ ही मौत का इत्माम और मौत के बाद क्या होने वाला है इसका खौफ़ ओ तसव्वुर मेरे अन्दर बे चैनी का आलम पैदा कर रहा था । मेरे सीनियर हाई स्कूल के साल में हमारे क्लास को घर का काम सोमपा गया था जिसमें 100 किताबें जिन में (नज़्मे , गाने और छोटी कहानियाँ पी जाएं उन्हें लेकर क्लास टीचर के सुपुर्द करना था । इस काम को हम ने पसंद भी किया था । यह सब से ज़ियादा इनामी मश्क़ था जिसे मैं ने कभी स्कूल में अंजाम दिया था –बहुत सारी मेरी जमा की हुई किताबें ऊपर दिए हुए मज़मून से ताल्लुक़ रखते थे । इसके अलावा खुदा ने मुझे होने दिया कि मैं दीगर लोगों से मुलाक़ात करूँ और उनकी सुनूँ जिन्हों ने मेरी ही तरह मस्लाजात के साथ कशमकश किये थे । उन से मुलाक़ात के साथ ही मैं ने सब तरह के केलनडर , तालीमी गोशा – ए – गुमनामी , जिंदगी के तोर तरीक़े , फ़लसफ़े इन मज़ामीन पर तस्नीफ़े (किताबें) जमा किये ।

मैं नें किताबों के साथ इंजील शरीफ़ में पाई जाने वाली हज़रत ईसा (येसू) की बातों को भी जोड़ दिया । सो दुनयावी किताबों के साथ साथ मेरे पास हज़रत ईसा की तालीमात की किताबें भी मौजूद थीं । जैसे युहन्ना की किताब का यह हवाला —“मैं इसलिए आया कि वह ज़िन्दगी पाएं और कसरत की ज़िन्दगी पाएं ।

युहन्ना 10 :10

इन सब के बाद मुझ पर एक नई  सुबह नमूदार हुई । एक नए सवेरे का आग़ाज़ हुआ । शायद यह नया सवेरा इन तमाम मामलात (सवालात) के लिए जवाब था जो मेरे साथ सुलेमान और दीगर मुसन्निफ़ीन पूछ रहे थे । बेहरहाल इंजील शरीफ़ (जो यहाँ तक कि मज़हबी दुनया में कम या ज़ियादा बे मायनी रहा हो) जिस के लाफ्ज़ी मायनी “ख़ुश ख़बरी” है तो क्या इंजील शरीफ़ हकीकत में ख़ुश ख़बरी था ? क्या इस पर भरोसा किया जा सकता था ? क्या वह बिगड़ा हुआ था ? दुसरे मायनों में क्या उसमें बिगाड़ पाया गया था ? यह सारे सवालात मेरे अन्दर पैदा होने लगे थे ।

एक ना भूलने वाली मुलाक़ात

उस साल के  के बाद मेरे कुछ दोस्त और मैं स्विटज़रलैंड में स्किंग के  लिए सैर सपाटे में गए हुए थे (स्किंग उन खेलों में से एक है जो प्लास्टिक के आठ फ़ुट लम्बे और चार इंच मोटे तख्ते के सहारे बरफ़ीली पहाड़ों या ज़मीन पर फिसला जाता है ) स्किंग के एक बड़े खेल को खेलने के बाद जवानी की ताक़त का जोश भरते हुए हम शाम के वक़्त क्लब में जाते थे । उन बज़मों में हम नाचते , गाते , रंग रलियां मानते , जवान लड़कियों से मिलते और देर रात तक हंसी मज़ाक़ करते थे ।

स्विटज़रलैंड में स्किंग खेल के तफ़रीह गाह ऊँची ऊँची बरफ़ीली पहाड़ों में होता है । मुझे अच्छी तरह से याद है कि देर रात में एक नाच रंग के हाल से बाहर निकलते वक़्त सोच रहा था कि मैं अपने कमरे में जाकर सो जाऊं । मगर मैं वहां जाने से रुक गया । आसमान की तरफ़ देखकर  सितारों को ताकने लग गया । इसलिए कि वह रात बहुत काली थी ,सितारे बहुत ही साफ़ नज़र आरहे थे । मैं एक पहाड़ी की ऊंचाई पर था जहां इंसानों की बनाई हुई रौशनी की आलूदगी थी आसमान की तरफ़ देखते हुए तमाम सितारों के जाह ओ जलाल और शान ओ शोकत को देख सकता था । देखते देखते मेरी सांस फूलने लगी और जो मैं कर सकता था वह यह था कि वहाँ खड़े होकर उन सितारों की अज़मत को एहतिराम के साथ ताकता रहूँ । उस वक़्त ज़बूर शरीफ़ की एक आयत मेरे दिमाग़ में आई जहां लिखा है :

“आसमान खुदा का जलाल ज़ाहिर करता है “

ज़बूर 19 :1

बहुत ज़ियादा काली रात में जाह ओ जलाल से भरपूर सितारों की दुनया को ताकते हुए मैं एक छोटे पैमाने पर अल्लाह के जलाल और उसकी क़ुदरत को देख सकता था । और मैं उस रात की खामोशी के लम्हे में जनता था कि मेरे पास एक चुनाव या एक इंतख़ाब है । मैं खुद्को खुदा के सुपुर्द कर सकता था या फिर अपनी उन्हीं बुरे रास्ते पर चलना जारी रख सकता था जिस में थोड़ी बहुत खुदा परस्ती थी मगर उसकी कुवत का जिंदगी भर इन्कार्कारना था । यह सोच कर मैं अपने घुटनों पर गिर पड़ा और उस कलि रात की खामोशी में सजदे में सर झुका दिया । और इस असर की सुपुर्दगी की याद में मैं ने अल्लासे इस तरह दुआ की ,” तू ही मेरा खुदावंद है । मैं अपनी जिंदगी तेरे सुपुर्द करता हूँ  — बहुत सी बातें हैं जो मैं नहीं समझता हूँ । तू मुझे अपनी सीढ़ी सच्ची राह में मेरी रहनुमाई कर । मैं सजदे में सर रखे हुए और उसी सुपुर्दगी की हालत में मैं ने अपनी जिंदगी के तमाम गुनाहों का एतराफ़ किया और मुआफ़ी और रहनुमाई के लिए उससे दरख्वास्त की । उस दौरान मेरे साथ कोई भी शख्स नहीं था । सिर्फ़ मैं था औरमेरे साथ अल्लाह था जिस के पीछे सितारों की दुनया थी । उस वक़्त रात के दो बजे थे और यह वाक़िया स्विट्ज़रलैंड के एक तफरीह गाह के बाहर हुई । यह एक ऐसी मुलाक़ात थी जिसको मैं अपनी जिंदगी भर नहीं भूल सकता था । यहांतक कि भूलने की कोशिश में वह अलफ़ाज़ मुख़्तसर तोर पर दोबारा याद आजाते ।

मेरे अपने सफ़र के दौरान वह एक ज़रूरी क़दम था । मैं अल्लाह की मर्ज़ी में होकर जब मैं उस मक़ाम पर था और मुझे कुछ जवाब चाहिए थे मन ने खुद को उस के सुपुर्द किया कुछ वक्फे के बाद जवाबात आने शुरू हो गए थे । जब मैं ने तलाशा और जो कुछ मैं ने सीखा था उस के मुताबिक़ मैं ने खुदको अल्लाह के हाथ सुपुर्द किया । इस के अलावा जो कुछ है वह वेब साईट यानी इन्टरनेट के इस जगह पर मौजूद है जिन्हें मैं ने उस्रात के बाद सीखना शुरू किया था । यह एक बहुत ही हक़ीक़ी बात है कि जब कोई इस तरह का सफ़र शुरू करता है तो वह पूरी तरह से कभी भी नहीं पहुँचता , मगर मैं ने जो बात  सीखी और तजरुबा किया कि इंजील शरीफ़ इन सब मामलात का जवाब देती है जिसे मैं ने अपनी में पुछा था । इसका ख़ास मक़सद यह है कि यह इन बातों से मुख़ातब कराए —– एक भरपूर जिंदगी का , मौत का , अब्दियत का , आज़ादी का और अमली तोर से मुताल्लिक़ होने का जैसे ख़ानदानी रिश्तों में हमारी महब्बत , नदामत , गुनाह से पछतावा खौफ और मुआफ़ी वगैरा । इंजील शरीफ़ का दावा यह है कि यह एक बुन्याद है जिस पर हम अपनी जिंदगी की इमारत खड़ी कर सकते है । यह मुमकिन है कि कोई कोई शख्स उन जवाबत को पसंद नहीं करता जो इंजील देती है या यह भी हो सकता है कि इन्हें पूरी तरह से समझ जाए । मगर जब तक यह पैग़ाम अल्लाह की जानिब से ईसा अल मसीह की शख्सियत पर नहीं आया हो इसकी इतला किये बगैर रुके रहना सरासर बेवक़ूफ़ी है । अगर आप इंजील पर गौर करने के लिए वक़्त लेते हैं तो आप इसी बात को प् सकते हैं ।     

मुक़द्दस इंजील की बाबत एक साईट है ,”इंजील शरीफ़“। मगर यह मसीहियत की बाबत एक साईट नहीं है । यह फ़रक बहुत ही ज़रूरी है ।

 जैसे मैं ने अपनी बाबत समझाया था । यह हमेशा से नबियों के ज़रिये इन्किशाफ़ किया हुआ मुक़द्दस इंजील ही था जिसने मेरी जिंदगी बदल दी और मेरी दिलचस्पी उसकी तरफ़ मुतास्सिर होने लगी । मसीहियत ने कभी भी मुझ पर इस बतोर असर नहीं डाला जितना कि मुक़द्दस इंजील ने । और इस किताब ने मुझे छुआ , मैं सिर्फ़ इंजील की साईट तक ही महदूद रखता हूँ (और तौरात शरीफ़ , ज़बूर शरीफ़ –मुक़द्दस बाईबल की किताबें या अल – किताब) जो नबियों के ज़रिये इन्किशाफ़ हुईं । इंजील मुक़द्दस पर कई एक वेब साईट मौजूद हैं , कुछ अच्छी हैं कुछ अच्छी नहीं हैं जो मसीहियत पर बहस व मुबाहसा करते हैं । और अगर यह आप का ख़ास दिलचस्प शै नहीं है तो मैं आप को सलाह देता हूँ कि “मसीहियत” को (गूगल में ढूँढना) शुरू करें और उन जोड़ने वाली चीज़ों के पीछे होलें ।

सो दो के दरमियान क्या फ़रक है । आप इस बतोर सोच सकते हैं जैसे कि एक अरब का शहरी होना और एक मुस्लिम के होने में फ़रक होता है वैसे ही दो के दरमियान फ़रक है । अक्सर मग़रिबी लोग सोचते हैं कि यह दोनों एक जैसे हैं । मिसाल बतोर तमाम मग़रिबी लोग मुस्लिम होते हैं और तमाम मुस्लिम अरबी होते हैं । जी हाँ इन दोनों के दरमियान कुछ एक बातें ढकी हुई और असर डाले हुए हैं । अरबी तहज़ीब और रस्मों रिवाज इस्लाम के ज़रिये बहुत जियादा असर डाल रखा है । और जबकि नबी हज़रत मोहम्मद (सल्लम) और उनके हम नशींन अरब के शहरी थे और यह भी सच है कि अरब के आस पास के मक़ामात और इलाकों ने इस्लाम की परवरिश की थी । इसलिए उन के ज़रिये क़ुरान शरीफ़ को आसानी से बहुत अक्सर ही पढ़ा और समझा जाता है । किसी तरह बहुत से मुस्लिम हैं जो अरब के शहरी हैं मगर वह मुस्लिम् नहीं हैं । इन में से एक दुसरे के ऊपर कुछ एक बातें ढकी हुई और असर डाले हुए हैं । मगर वह सब के सब एक जैसे नहीं हैं ।

इसलिए यह बातें इंजील और मसीहियत से ताल्लुक़ रखती हैं ।  मसीहियत में बहुत सी ऐसी बातें हैं जो ईमान और अमल से ताल्लुक़ रखती हैं जो इंजील का हिस्सा नहीं हैं । मिसाल बतोर जाना माना ईस्टर और बड़े दिन का त्यौहार का मनाया जाना है । यह दो त्यौहार ऐसे हैं जो गालिबन जाने माने मसीहियत का इज़हार करते हैं । यह दोनों त्यौहार नबी हज़रत ईसा अल मसीह की पैदाइश और उनके वफ़ात की यादगारी में मनाया जाता है जिन्हें मुक़द्दस इंजील के ख़ास नबी माने जाते हैं । मगर इंजील के पैग़ाम में कहीं पर भी चारों अनाजील के किसी भी किताब में कोई हवाला या हुक्म पाया नहीं जाता जो इन त्योहारों से कुछ (लेना देना) हो या उन्हें मानाने की पाबन्दी हो । मगर यह भी बात है कि मेरे दोस्तों में से कई एक दोस्त हैं जो मुक़द्दस इंजील में दिलचस्पी नहीं रखते । दरअसल मसीहीयों के फ़िरके ऐसे हैं ज्वाइन त्योहारों को साल के फ़रक फ़रक दिनों में मनाते हैं । दीगर मिसाल के मुताबिक़ इंजील यह बात कलमबंद करती है कि हज़रत ईसा अल मसीह ने अपने शागिरदों को इन अलफ़ाज़ में सलाम किया “सलाम हो तुम पर “(अस्सलामु अलैकुम) । हालांकि मौजूदा दौर के मसीही लोग इस तरह के सलाम का इस्तेमाल नहीं करते ।  

19 उसी दिन जो सप्ताह का पहिला दिन था, सन्ध्या के समय जब वहां के द्वार जहां चेले थे, यहूदियों के डर के मारे बन्द थे, तब यीशु आया और बीच में खड़ा होकर उन से कहा, तुम्हें शान्ति मिले।

युहन्ना 19:20

चाहे वह त्यौहार से मुताल्लिक़ हो कलीसियाएं , जिसतरह कुछ कलीसियाओं में मुजस्समे पाए जाते हैं । बहुत कुछ अच्छी और बुरी बातें हैं जो इंजील मुक़द्दस के मुकशिफे के बाद ज़ाहिर होती गयीं और वह मसीहियत का हिस्सा बन्ते गये ।

हालाँकि दो के दरमियान कुछ एक बातें ढकी हुई हैं — वह एक दुसरे के यकसां नहीं हैं । दरअसल पूरी बाइबिल मुक़द्दस (अल – किताब) में मसीही का लफ़ज़ सिर्फ़ तीन बार आया हुआ है । और जो पहली मर्तबा इस लफ़ज़ इस्तेमाल हुआ है यह इशारा करता है कि उस ज़माने के बुत परस्तों ने इस लफ़ज़ की खोज की कि हज़रत ईसा अल मसीह के शागिरदों को इस नाम से पुकारा जाए ।

26 और जब उन से मिला तो उसे अन्ताकिया में लाया, और ऐसा हुआ कि वे एक वर्ष तक कलीसिया के साथ मिलते और बहुत लोगों को उपदेश देते रहे, और चेले सब से पहिले अन्ताकिया ही में मसीही कहलाए॥

आमाल 26:11

अन्ताकिया के लोग उस ज़माने में बहुत से बुतों की पूजा करते थे मगर हज़रत ईसा के शागिर्द हज़रत ईसा की तालीम पर चलने लगे तो इन बुत परस्तों के ज़रिये उन्हें यह नाम दिया गया । तौरात शरीफ़ , ज़बूर शरीफ़ और इंजील शरीफ़ (बाइबिल या अल – किताब) में मौसूम और तसव्वुर शुदा बातें जो आम तोर से इंजील शरीफ़ को बयान करने के लिए हैं इसे “रास्ता” (सिरात) और “सीधा रास्ता” (सिरातुल मुस्तक़ीम)कहा गया । और जो इंजील के पीछे चलते थे उन्हें “ईमानदार” “शागिर्द” या “रास्ते के पीछे चलने वाले” कहा गया । यह वह लोग हैं जो खुदा की रास्त्बाज़ी के लिए मखसूस किये गए हैं ।

मैं इस बात से क़ायल हूँ कि हर किसी को इंजील शरीफ़ को समझने का मौक़ा है । बहुत सारी तारीख़ी कहानियाँ और बुन्यादें हैं जो इंजील और इस्लाम के दरमियान एक जैसी हैं । इस के बावजूद भी बहुत साड़ी बातें ग़ैर रज़ामंद और शुरू ही से गलत फ़हमी के शिकार हैं । इसलिए मेरे दोस्तो ! मैं ने इस वेब साईट को शुरू किया है । अगर ख़ुदा की पाक मर्ज़ी होगी (इंशाअल्लाह) तो ईमानदारों के लिए मददगार साबित होगी कि नबियों के ज़रिये जो बातें कही गयीं थीं उन सारी   बातों को बेहतर तरीक़े से समझ सकें । और मुझे यकीन है कि यह बातें खामोशी से आपकी जिंदगियों को बदलना जारी रखेंगी मगर नाटकीय अंदाज़ से जिस तरह हज़रत ईसा अल मसीह ने बहुत पहले सिरातुल मुस्तक़ीम की क़ुव्वत की बाबत तालीम दी थी ।

जबकि हम जानते हैं कि इंजील मुक़द्दस को नबी हज़रत ईसा अल मसीह के ज़रिये क़ायम किया गया और अल्लाह से डरते हैं उन्हें नबियों की तमाम किताबों पर ईमान लाकर उन्हें समझना चाहिए । हम मसीहियत के दलीलों को दूसरे मक़ामों और दुसरे लोगों के लिए रहने देते हैं । इंजील शरीफ़ मुस्तहक़ रखता है कि उसको मसीहियत के किसी भी उलझाव या दिक्क़त के बगैर साझा जाए । मैं सोचता हूँ कि आप इसे पा लेंगे जिसतरह मैं ने पा लिया है । और यह इस बिना पर आपके दिलचस्पी और चुनौती के लिए काफ़ी होगा ।

अस्सलामु अलैकुम – यह इन्टरनेट पर इतला की जगह इंजील शरीफ़ की बाबत है जो खुश ख़बरी के नाम से भी जाना जाता है । इंजील के लाफ्ज़ी मायने हैं “ख़ुश ख़बरी” । और यह खुश ख़बरी एक पैग़ाम है कि फलां हादसे ने पहले से ही आपकी शख्सी ज़िन्दगी पर असर छोड़ रखा है जिसे आप इनकार नहीं कर सकते । रोमी सल्तनत की ऊंचाई पर इस ख़ुश ख़बरी ने यूरोप की दुनया के मिडिल ईस्ट , एशिया , अफ़रीका में इनक़िलाब बरपा कर दिया था , काया पलट कर दिया था और इन मुमालिक को बिलकुल बदल कर रख दिया था । इस ख़ुश ख़बरी ने उस ज़माने की दुनिया को जिसतरह बदला था बिलकुल वैसे ही यहाँ तक कि आज भी ज़िंदगियों को बदल रहा है इसे चाहे हम क़बूल करें या न करें । इसे चाहे हम जाने या न जानें इस खुश ख़बरी ने कतई या बुनियादी तोर से असर छोड़ रखा है । यह इंजील का ही असर था कि किताबों की इशाअत का आगाज़ हुआ जिस में अलफ़ाज़ खली जगहों के ज़रिये जुदा जुदा लिखे गए एराब निगारी और औक़ात निगारी का वजूद हुआ , ऊपरी और निचली हुरूफों का इम्तियाज़ किया गया —- यूनिवर सिटियाँ क़ायम हुईं –हस्प्तालें बनवाई गयीं – यहाँ तक कि यतीम खानों की बुनयाद उन लोगों ने राखी जिन्हों ने समझ लिया था कि ख़ुश ख़बरी मुआशिरे पर किसतरह असर छोड़ सकती है । इस ख़ुश ख़बरी ने सारी दुनिया के मुआशिरे को आज़ाद करने की तरफ़ रहनुमाई की जब तक कि वह मुआशिरा इंजील से असर पिजीर होकर तसल्ली की राह पर न चल पड़ा था । इसी मुआशिरे का एक हिस्सा रोमी सल्तनत के ख़ूनी शिकंजे में दबा पड़ा था जिन्हों ने उसी लोहे के मुटठी और बिगाड़ के साथ हुकूमत करी थी जिसतरह मौजूदा दौर के तानाशाही हुक्मरान किया करते हैं ।

और जब नबी हज़रत महम्मद (सल्लम) ने क़ुरान शरीफ़ को इल्हाम के ज़रिये इज़हार किया तो उन्हों ने बड़े ही ताज़ीम ओ तकरीम के साथ इंजील मुक़द्दस का हवाला पेश किया । जिस तरह से इन्टरनेट के इस इतला की जगह पर कई एक मज़ामीन में देख पाएंगे कि हज़रत महम्मद (सल्लम) ने बड़ी इज़्ज़त के साथ क़दीम किताबें (तौरात शरीफ़ , ज़बूर शरीफ़ और इंजील शरीफ़) का क़ुरान शरीफ़ में ज़िकर किया । और अगर नबी हज़रत महम्मद (सल्लम) की मिसाल के पीछे चलना वाजिब है इन्हीं किताबों के साथ क्या कोई शख्स मशहूर नहीं हो सकता ?

हालाँकि आज के दौर में हालात बदल गए हैं । लफ्ज़ इंजील या (ख़ुश ख़बरी) हमारे दिलों में ज़हन नशीन नहीं हो पाते । हस्बे मामूल तरीक़े से उसकी आवाज़ हमारे दमागों कानों में नहीं गूंजती और न ही उसकी आवाज़ को पहचानते हैं जैसे पहचानना चाहिए । इस ख़ुश ख़बरी को बहुत से लोग मसीहियत के साथ या मगरिबी तहज़ीब के साथ शरीक करते हैं । और जबकि यह हक़ीक़त नहीं है । यह ख़ुश ख़बरी उन सब के लिए है जो अल्लाह (ख़ुदा) पर ईमान रखते हैं । और इस का आग़ाज़ मिडिल ईस्ट (वस्ती एशिया) में हुआ है न कि मगरिब में ।

यह बात नहीं है कि लोग इंजील शरीफ़ के ख़िलाफ़ नहीं हैं बल्कि इस से बड़ी बात यह है कि लोग इसकी गहराई में नहीं जाना चाहते हैं । मौजूदा दौर में हम ताज्जुब करते हैं कि इंजील को बाद के मुकाशिफे के ज़रिये बदला गया है । दीगर ज़मानों में हम ताज्जुब करते हैं अगरचे इस को बिगाड़ा गया है । हमारी अपनी मसरूफ़ जिंदगियों के साथहम ने सही तोर से गौर नहीं किया कि यह ख़ुश ख़बरी आखिरेकार किस की बाबत है । सो (मुक़द्दस इंजील को शामिल करते हुए) इन क़दीम किताबों के मुताला के उम्दा मौक़े से यहूदी , मुस्लिम और यहाँ तक कि बहुत से मसीही भी इस उम्दा और मुबारक मौक़े से महरूम हो गए यानी कि मौक़े से चूक बैठे हैं ।

इसी लिए हम ने इन चीज़ों को इन्टरनेट के इस इतला की जगह में एक साथ डाला है —ताकि इन्हें समझने का मौक़ा हासिल हो । किसी किसी के लिए शायद यह पहला मौक़ा हो सकता है यह समझने के लिए कि इंजील का पैग़ाम खुश ख़बरी क्यों है । इन्टरनेट में इतला की यह जगह यह मौक़ा भी फ़राहम करेगा कि इंजील की बाबत सवालात पर गौर करते हुए जो हम सब के पास है उन से असर पिज़ीर हो सके । अगर यहाँ आप का पहला मौक़ा है तो आप “मेरी बाबत” जो अगली तहरीर है इसके साथ शुरू कर सकते हैं जहां मैं ने खुद की कहानी पेश की है की किसतरह इंजील शरीफ़ मेरे लिए बा – मौक़ा बन गया । इंशाअल्लाह आप ज़रूर इस से (चारा पाएंगे) फ़ा इदा उठाएंगे । इसे तअय्युन करने में अपना वक़्त लें और इंजील की ख़ुशख़बरी पर गौर करते हुए अपनी क़िस्मत आज़माई करें (एक हादसे को अंजाम दें) ।