मेरे कई मुस्लिम दोस्त है। और क्योकि मै भी अल्लाह मै ईमान रखता हूँ। और इंजील का एक अनुयायी हूँ मै आमतौर पर ईमान और यक़ीन के बारे में अपने मुस्लिम दोस्तों के साथ नियमित रूप से बातचीत करता हूं। असल मै हमारे बीच (मेरे और मेरे मुस्लिम दोस्तों के बीच मै) बहुत कुछ आम है, बल्की उनसे भी ज्यादा, दुनियावी पश्चिमी लोगों के साथ जो अल्लाह में ईमान नहीं रखते हैं, या उनकी जिंदगी के लिए ईमान बेतुक है। अपनी बातचीत में लगभग बिना किसी अपवाद के मैं यह दावा सुनता हूं कि इंजिल सरीफ ( ज़बूर और तौरात जो अल किताब है = बाइबिल) ख़राब है, या उसे बदल दिया गया है, इसलिए कि आज हम जो पैगाम पढ़ते हैं वह अपमानित और गलतियों से भरा है जो पहले अल्लाह के नबियों और मुरीदों के द्वारा प्रेरित था और उनके जरिये लिखा गया था। अब यह कोई छोटा दावा नहीं है, क्योंकि इसका मतलब यह होगा कि हम अल्लाह के सच को उजागर करने के लिए आज की तारीख में बाइबल(किताबे मुकदस) पर भरोसा नहीं कर सकते। मैंने बाइबल (अल किताब) और पाक क़ुरआन दोनों को पढ़ा और अध्ययन किया, और सुन्नत का अध्ययन करना शुरू कर दिया। तो मुझे क्या पता चला कि यह एक केवल संदेह है बाइबिल(अल- किताब) के बारे मै, हालाँकि यह बात आज इतनी आम हो गयी है, लेकिन इसका कुछ भी जिक्र क़ुरान सरीफ मै नहीं मिलता है, बल्कि हकीकत मै इस बात ने मुझे चौंका दिया कि क़ुरान शरीफ बाइबिल( अल- किताब) को कितनी गंभीरता से लेती है।
बाइबिल(अल-किताब) के बारे मै क़ुरान शरीफ क्या कहती है ?
(ऐ रसूल) तुम कह दो कि ऐ एहले किताब जब तक तुम तौरेत और इन्जील और जो (सहीफ़े) तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से तुम पर नाजि़ल हुए हैं उनके (एहकाम) को क़ायम न रखोगे उस वक़्त तक तुम्हारा मज़बह कुछ भी नहीं और (ऐ रसूल) जो (किताब) तुम्हारे पास तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से भेजी गयी है (उसका) रश्क (हसद) उनमें से बहुतेरों की सरकशी व कुफ़्र को और बढ़ा देगा तुम काफि़रों के गिरोह पर अफ़सोस न करना [(सूरा – 5:68)
ऐ ईमानवालों ख़ुदा और उसके रसूल (मोहम्मद (स०)) पर और उसकी किताब पर जो उसने अपने रसूल (मोहम्मद) पर नाजि़ल की है और उस किताब पर जो उसने पहले नाजि़ल की ईमान लाओ और (ये भी याद रहे कि) जो शख़्स ख़ुदा और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों और रोज़े आखि़रत का मुन्किर हुआ तो वह राहे रास्त से भटक के दूर जा पड़ा [(सूरा 4:136) निसा] पस जो कु़रान हमने तुम्हारी तरफ नाजि़ल किया है अगर उसके बारे में तुम को कुछ शक हो तो जो लोग तुम से पहले से किताब (ख़़ुदा) पढ़ा करते हैं उन से पूछ के देखों तुम्हारे पास यक़ीनन तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से बरहक़ किताब आ चुकी तो तू न हरगिज़ शक करने वालों से होना [(सूरा 10:94) यूनुस]
मैंने यह बात ध्यान दी कि यह इस बात की घोषणा करता है कि जो प्रकाशन ‘ किताब के लोगों’ (इसाई और यहूदियों) को मिला है वह अल्लाह की तरफ से है। अब मेरे मुस्लिम दोस्त यह कहते हैं यह सिर्फ असली प्रकाशन पर लागू होता है, चुकी असली प्रकाशन ख़राब हो गया है तो यह आज के कलाम पर लागु नहीं होता है, लेकिन दूसरा मार्ग उन लोगो की भी पुष्टि करता है जो यहूदियों के कलाम को (यह वर्तमान काल के बारे मै भूतकाल के बारे नहीं है) पढ़ रहे है। यह असली प्रकाशन के बारे में बात नहीं कर रहा है लेकिन उस समय जब का कलाम जब क़ुरान शरीफ ज़ाहिर हुई थी। यह लगभग 600 ईस्वी के दौरान नबी मोहम्मद को ज़ाहिर हुई थी। तो यह रास्ता यहूदियों के कलाम को मंजूरी देता है क्योंकि यह 600 ईस्वी मै मौजूद था। दूसरे रास्ते समान हैं। यहां गौर करें:
और (ऐ रसूल) तुम से पहले आदमियों ही को पैग़म्बर बना बनाकर भेजा कि जिन की तरफ हम वहीं भेजते थे तो (तुम एहले मक्का से कहो कि) अगर तुम खुद नहीं जानते हो तो एहले जि़क्र (आलिमों से) पूछो (और उन पैग़म्बरों को भेजा भी तो) रौशन दलीलों और किताबों के साथ [(सूरा 16:43)अन नहल]
तो क्या ये लोग ईमान लाएँगे और ऐ रसूल हमने तुमसे पहले भी आदमियों ही को (रसूल बनाकर) भेजा था कि उनके पास “वही” भेजा करते थे तो अगर तुम लोग खु़द नहीं जानते हो तो आलिमों से पूँछकर देखो।[ (सूरा 21:7) अल अम्बिया]
यह वह रसूल है जो पैगम्बर मुहम्मद से पहले थे लेकिन अहम रूप से दावा करते हैं इन रसूल/पैगम्बरो को अल्लाह के ज़रिये दिये कलाम अभी भी(600 ईस्वी मैं ) उनके पैरोकारों के कब्जे मै थे, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि असल मै दिया गया प्रकाशन(अल-किताब) पैगम्बर मुहम्मद के समय मै ख़राब(बदली) नहीं हुआ था
पाक क़ुरान कहती है कि अल्लाह का कलाम कभी नहीं बदल सकता है
लेकिन अगर गहराई से सोचें और मान ले की अल-किताब बदल गयी है। लेकिन इस बदलाब का क़ुरान शरीफ हिमायत नहीं करती है। ध्यान दें सूरा 5:68 (कानून … खुश खबरी … यह एक प्रकाशन है और यह अल्लाह से आया है) और निम्नलिखित पर गौर करें
और (कुछ तुम ही पर नहीं) तुमसे पहले भी बहुतेरे रसूल झुठलाए जा चुके हैं तो उन्होनें अपने झुठलाए जाने और अज़ीयत (व तकलीफ) पर सब्र किया यहाँ तक कि हमारी मदद उनके पास आयी और (क्यों न आती) ख़ुदा की बातों का कोई बदलने वाला नहीं है और पैग़म्बर के हालात तो तुम्हारे पास पहुँच ही चुके हैं। [सूरा 6:34(अनआम)]
तो तुम (कहीं) शक़ करने वालों से न हो जाना और सच्चाई और इन्साफ में तो तुम्हारे परवरदिगार की बात पूरी हो गई कोई उसकी बातों का बदलने वाला नहीं और वही बड़ा सुनने वाला वाक़िफकार है। [सूरा 6:115 (अनआम )]
उन्हीं लोगों के वास्ते दीन की ज़िन्दगी में भी और आख़िरत में (भी) ख़ुशख़बरी है ख़ुदा की बातों में अदल बदल नहीं हुआ करता यही तो बड़ी कामयाबी है। [सूरा 10:64 (यूनुस)]
और (ऐ रसूल) जो किताब तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से वही के ज़रिए से नाज़िल हुईहै उसको पढ़ा करो उसकी बातों को कोई बदल नहीं सकता और तुम उसके सिवा कहीं कोई हरगिज़ पनाह की जगह (भी) न पाओगे। [सूरा 18:27 (अल कहफ़)]
अगर हम राजी हैं की पैगम्बर मुहम्मद से पहले के नबीयों को अल्लाह की ओर से प्रकाशन मिला है (जैसा की सूरा 5:68-69 मै लिखा है) और जब से यह आयते कई बार काफी साफ़ तौर पे कहती है कि अल्लाह के पैगाम को कोई बदल नहीं सकता है तो कैसे कोई इस बात पर यकीन कर सकता है कि तौरेत , जबूर और इंजील (अल- किताब = बाइबिल) किसी इंसान के जरिये बदल गयी या ख़राब हो गयी थी? यह मानने के लिए की बाइबल(किताबे मुक़द्दस) बदल गयी है , उसके लिए क़ुरान सरीफ को खुद को नज़र अंदाज करना होगा।
यह मामला हकीकत मै, यह विचार की अनेक प्रकार के अल्लाह के प्रकाशन को परखने का विचार की यह एक दूसरे से बेहतर या बदतर है, हालांकि यह बड़े रूप मै माना जाता है, लेकिन कुरान में इसकी हामी नहीं है।
और ऐ मुसलमानों तुम ये) कहो कि हम तो खुदा पर ईमान लाए हैं और उस पर जो हम पर नाज़िल किया गया (कुरान) और जो सहीफ़े इबराहीम व इसमाइल व इसहाक़ व याकूब और औलादे याकूब पर नाज़िल हुए थे (उन पर) और जो किताब मूसा व ईसा को दी गई (उस पर) और जो और पैग़म्बरों को उनके परवरदिगार की तरफ से उन्हें दिया गया (उस पर) हम तो उनमें से किसी (एक) में भी तफरीक़ नहीं करते और हम तो खुदा ही के फरमाबरदार हैं। [सूरा 2:136 (अल-बक़रह)] (इस आयत पर भी गौर करें- सूरा 2:285)
इसलिए इन बातों मै कोई फर्क नहीं होना चाहिए कि हम सभी प्रकाशन को कैसे मानते है. इसमें हमारी पड़ाई शामिल होगी. और दूसरे अल्फाज़ो मै, हमें सभी किताबों की जानकारी होनी चाहिए. हकीकत मै, मै ईसाइयों को कुरान का अध्ययन करने पर ज़ोर डालता हूँ और मुसलमानो को किताबे मुकदस (बाइबिल) का अध्ययन करने पर ज़ोर डालता हूँ।
इन किताबो का अध्ययन करने मै वक़्त और हौसला लगता है . बहुत सारे सवाल उठाये जाएंगे। यकीनन तौर पे हलाकि यह ज़मीन पर हमारे वक़्त का एक बखूबी इस्तेमाल हैं- उन सभी किताबो से सिखने के लिए जो पैगंम्बरो ने उजागर की है . मुझे पता है मेरे लिए, सभी रूहानी किताबो का अध्ययन करने मै वक़्त और हौसला लगा. और इसने मेरे मन मै कई सवाल उठाये है, यह मेरे लिए एक इनामी तज़ुर्बा रहा है और मैंने इसमें अल्लाह की बरकत को महसूस किया है। मुझे उम्मीद है की आप लोग इस वेबसाइट पर लिखे कुछ लेखो का अध्यन जारी रखेंगे। मगर एक अच्छी शुरआत करने के लिए देखे की हदीस और पैगम्बर मुहम्मद ने क्या सोचा जब उन्होंने तौरात, ज़बूर और इंजील सरीफ का इस्तेमाल किया। इस लेख का लिंक यहां है। अगर आपको वैज्ञानिक दिलचस्पी है कि सभी कादिम (रूहानी) किताबो की विश्वसनीयता कैसे निर्धारित की जाती है, और क्या बाइबिल( किताबे मुक़द्दस) को इस वैज्ञानिक नज़रिये से भरोसे लायक या फिर ख़राब माना जाता है। यहां पर यह लेख देखे।