शिष्यों को दर्शन देना
19 उसी दिन शाम को, जो सप्ताह का पहला दिन था, उसके शिष्य यहूदियों के डर के कारण दरवाज़े बंद किये हुए थे। तभी यीशु वहाँ आकर उनके बीच खड़ा हो गया और उनसे बोला, “तुम्हें शांति मिले।” 20 इतना कह चुकने के बाद उसने उन्हें अपने हाथ और अपनी बगल दिखाई। शिष्यों ने जब प्रभु को देखा तो वे बहुत प्रसन्न हुए।
21 तब यीशु ने उनसे फिर कहा, “तुम्हें शांति मिले। वैसे ही जैसे परम पिता ने मुझे भेजा है, मैं भी तुम्हें भेज रहा हूँ।” 22 यह कह कर उसने उन पर फूँक मारी और उनसे कहा, “पवित्र आत्मा को ग्रहण करो। 23 जिस किसी भी व्यक्ति के पापों को तुम क्षमा करते हो, उन्हें क्षमा मिलती है और जिनके पापों को तुम क्षमा नहीं करते, वे बिना क्षमा पाए रहते हैं।”
यीशु का थोमा को दर्शन देना
24 थोमा जो बारहों में से एक था और दिदिमस अर्थात् जुड़वाँ कहलाता था, जब यीशु आया था तब उनके साथ न था। 25 दूसरे शिष्य उससे कह रहे थे, “हमने प्रभु को देखा है।” किन्तु उसने उनसे कहा, “जब तक मैं उसके हाथों में कीलों के निशान न देख लूँ और उनमें अपनी उँगली न डाल लूँ तथा उसके पंजर में अपना हाथ न डाल लूँ, तब तक मुझे विश्वास नहीं होगा।”
26 आठ दिन बाद उसके शिष्य एक बार फिर घर के भीतर थे। और थोमा उनके साथ था। (यद्यपि दरवाज़े पर ताला पड़ा था।) यीशू आया और उनके बीच खड़ा होकर बोला, “तुम्हें शांति मिले।” 27 फिर उसने थोमा से कहा, “हाँ अपनी उँगली डाल और मेरे हाथ देख, अपना हाथ फैला कर मेरे पंजर में डाल। संदेह करना छोड़ और विश्वास कर।”
28 उत्तर देते हुए थोमा बोला, “हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर।”
29 यीशु ने उससे कहा, “तूने मुझे देखकर, मुझमें विश्वास किया है। किन्तु धन्य वे हैं जो बिना देखे विश्वास रखते हैं।”
यह पुस्तक यूहन्ना ने क्यों लिखी
30 यीशु ने और भी अनेक आश्चर्य चिन्ह अपने अनुयायियों को दर्शाए जो इस पुस्तक में नहीं लिखे हैं। 31 लेकिन ये लिखा है कि आप विश्वास कर सकते हैं कि यीशु मसीहा है, परमेश्वर का पुत्र है, और यह विश्वास करके कि आप उनके नाम पर जीवन जी सकते हैं
यूहन्ना 20:19-31
यीशु झील पर प्रकट हुआ
21 इसके बाद झील तिबिरियास पर यीशु ने शिष्यों के सामने फिर अपने आपको प्रकट किया। उसने अपने आपको इस तरह प्रकट किया। 2 शमौन पतरस, थोमा (जो जुड़वाँ कहलाता था) गलील के काना का नतनएल, जब्दी के बेटे और यीशु के दो अन्य शिष्य वहाँ इकट्ठे थे। 3 शमौन पतरस ने उनसे कहा, “मैं मछली पकड़ने जा रहा हूँ।”
वे उससे बोले, “हम भी तेरे साथ चल रहे हैं।” तो वे उसके साथ चल दिये और नाव में बैठ गये। पर उस रात वे कुछ नहीं पकड़ पाये।
4 अब तक सुबह हो चुकी थी। तभी वहाँ यीशु किनारे पर आ खड़ा हुआ। किन्तु शिष्य जान नहीं सके कि वह यीशु है। 5 फिर यीशु ने उनसे कहा, “बालकों तुम्हारे पास कोई मछली है?”
उन्होंने उत्तर दिया, “नहीं।”
6 फिर उसने कहा, “नाव की दाहिनी तरफ़ जाल फेंको तो तुम्हें कुछ मिलेगा।” सो उन्होंने जाल फेंका किन्तु बहुत अधिक मछलियों के कारण वे जाल को वापस खेंच नहीं सके।
7 फिर यीशु के प्रिय शिष्य ने पतरस से कहा, “यह तो प्रभु है।” जब शमौन ने यह सुना कि वह प्रभु है तो उसने अपना बाहर पहनने का वस्त्र कस लिया। (क्योंकि वह नंगा था।) और पानी में कूद पड़ा। 8 किन्तु दूसरे शिष्य मछलियों से भरा हुआ जाल खिंचते हुए नाव से किनारे पर आये। क्योंकि वे धरती से अधिक दूर नहीं थे, उनकी दूरी कोई सौ मीटर की थी। 9 जब वे किनारे आए उन्होंने वहाँ दहकते कोयलों की आग जलती देखी। उस पर मछली और रोटी पकने को रखी थी। 10 यीशु ने उनसे कहा, “तुमने अभी जो मछलियाँ पकड़ी हैं, उनमें से कुछ ले आओ।”
11 फिर शमौन पतरस नाव पर गया और 153 बड़ी मछलियों से भरा हुआ जाल किनारे पर खींचा। जाल में यद्यपि इतनी अधिक मछलियाँ थी, फिर भी जाल फटा नहीं। 12 यीशु ने उनसे कहा, “यहाँ आओ और भोजन करो।” उसके शिष्यों में से किसी को साहस नहीं हुआ कि वह उससे पूछे, “तू कौन है?” क्योंकि वे जान गये थे कि वह प्रभु है। 13 यीशु आगे बढ़ा। उसने रोटी ली और उन्हें दे दी और ऐसे ही मछलियाँ भी दी।
14 अब यह तीसरी बार थी जब मरे हुओं में से जी उठने के बाद यीशु अपने शिष्यों के सामने प्रकट हुआ था।
यीशु की पतरस से बातचीत
15 जब वे भोजन कर चुके तो यीशु ने शमौन पतरस से कहा, “यूहन्ना के पुत्र शमौन, जितना प्रेम ये मुझ से करते हैं, तू मुझसे उससे अधिक प्रेम करता है?”
पतरस ने यीशु से कहा, “हाँ प्रभु, तू जानता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूँ।”
यीशु ने पतरस से कहा, “मेरे मेमनों[a] की रखवाली कर।”
16 वह उससे दोबारा बोला, “यूहन्ना के पुत्र शमौन, क्या तू मुझे प्रेम करता है?”
पतरस ने यीशु से कहा, “हाँ प्रभु, तू जानता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूँ।”
यीशु ने पतरस से कहा, “मेरी भेड़ों की रखवाली कर।”
17 यीशु ने फिर तीसरी बार पतरस से कहा, “यूहन्ना के पुत्र शमौन, क्या तू मुझे प्रेम करता है?”
पतरस बहुत व्यथित हुआ कि यीशु ने उससे तीसरी बार यह पूछा, “क्या तू मुझसे प्रेम करता है?” सो पतरस ने यीशु से कहा, “हे प्रभु, तू सब कुछ जानता है, तू जानता है कि मैं तुझसे प्रेम करता हूँ।”
यीशु ने उससे कहा, “मेरी भेड़ों को चरा। 18 मैं तुझसे सत्य कहता हूँ, जब तू जवान था, तब तू अपनी कमर पर फेंटा कस कर, जहाँ चाहता था, चला जाता था। पर जब तू बूढा होगा, तो हाथ पसारेगा और कोई दूसरा तुझे बाँधकर जहाँ तू नहीं जाना चाहता, वहाँ ले जायेगा।” 19 (उसने यह दर्शाने के लिए ऐसा कहा कि वह कैसी मृत्यु से परमेश्वर की महिमा करेगा।) इतना कहकर उसने उससे कहा, “मेरे पीछे चला आ।”
20 पतरस पीछे मुड़ा और देखा कि वह शिष्य जिसे यीशु प्रेम करता था, उनके पीछे आ रहा है। (यह वही था जिसने भोजन करते समय उसकी छाती पर झुककर पूछा था, “हे प्रभु, वह कौन है, जो तुझे धोखे से पकड़वायेगा?”) 21 सो जब पतरस ने उसे देखा तो वह यीशु से बोला, “हे प्रभु, इसका क्या होगा?”
22 यीशु ने उससे कहा, “यदि मैं यह चाहूँ कि जब तक मैं आऊँ यह यहीं रहे, तो तुझे क्या? तू मेरे पीछे चला आ।”
23 इस तरह यह बात भाईयों में यहाँ तक फैल गयी कि वह शिष्य नहीं मरेगा। यीशु ने यह नहीं कहा था कि वह नहीं मरेगा। बल्कि यह कहा था, “यदि मैं यह चाहूँ कि जब तक मैं आऊँ, यह यहीं रहे, तो तुझे क्या?”
24 यही वह शिष्य है जो इन बातों की साक्षी देता है और जिसने ये बातें लिखी हैं। हम जानते हैं कि उसकी साक्षी सच है।
25 यीशु ने और भी बहुत से काम किये। यदि एक-एक करके वे सब लिखे जाते तो मैं सोचता हूँ कि जो पुस्तकें लिखी जातीं वे इतनी अधिक होतीं कि समूची धरती पर नहीं समा पातीं।
यूहन्ना 21: 1-25
लूका द्वारा लिखी गयी दूसरी पुस्तक का परिचय
1 हे थियुफिलुस,
मैंने अपनी पहली पुस्तक में उन सब कार्यों के बारे में लिखा जिन्हें प्रारंम्भ से ही यीशु ने किया और 2 उस दिन तक उपदेश दिया जब तक पवित्र आत्मा के द्वारा अपने चुने हुए प्रेरितों को निर्देश दिए जाने के बाद उसे ऊपर स्वर्ग में उठा न लिया गया। 3 अपनी मृत्यु के बाद उसने अपने आपको बहुत से ठोस प्रमाणों के साथ उनके सामने प्रकट किया कि वह जीवित है। वह चालीस दिनों तक उनके सामने प्रकट होता रहा तथा परमेश्वर के राज्य के विषय में उन्हें बताता रहा। 4 फिर एक बार जब वह उनके साथ भोजन कर रहा था तो उसने उन्हें आज्ञा दी, “यरूशलेम को मत छोड़ना बल्कि जिसके बारे में तुमने मुझसे सुना है, परम पिता की उस प्रतिज्ञा के पूरा होने की प्रतीक्षा करना। 5 क्योंकि यूहन्ना ने तो जल से बपतिस्मा दिया था, किन्तु तुम्हें अब थोड़े ही दिनों बाद पवित्र आत्मा से बपतिस्मा दिया जायेगा।”
यीशु का स्वर्ग में ले जाया जाना
6 सो जब वे आपस में मिले तो उन्होंने उससे पूछा, “हे प्रभु, क्या तू इसी समय इस्राएल के राज्य की फिर से स्थापना कर देगा?”
7 उसने उनसे कहा, “उन अवसरों या तिथियों को जानना तुम्हारा काम नहीं है, जिन्हें परम पिता ने स्वयं अपने अधिकार से निश्चित किया है। 8 बल्कि जब पवित्र आत्मा तुम पर आयेगा, तुम्हें शक्ति प्राप्त हो जायेगी, और यरूशलेम में, समूचे यहूदिया और सामरिया में और धरती के छोरों तक तुम मेरे साक्षी बनोगे।”
9 इतना कहने के बाद उनके देखते देखते उसे स्वर्ग में ऊपर उठा लिया गया और फिर एक बादल ने उसे उनकी आँखों से ओझल कर दिया। 10 जब वह जा रहा था तो वे आकाश में उसके लिये आँखें बिछाये थे। तभी तत्काल श्वेत वस्त्र धारण किये हुए दो पुरुष उनके बराबर आ खड़े हुए 11 और कहा, “हे गलीली लोगों, तुम वहाँ खड़े-खड़े आकाश में टकटकी क्यों लगाये हो? यह यीशु जिसे तुम्हारे बीच से स्वर्ग में ऊपर उठा लिया गया, जैसे तुमने उसे स्वर्ग में जाते देखा, वैसे ही वह फिर वापस लौटेगा।”
जॉन 13 – 16
यीशु का अपने शिष्यों के पैर धोना
13 फ़सह पर्व से पहले यीशु ने देखा कि इस जगत को छोड़ने और परम पिता के पास जाने का उसका समय आ पहुँचा है तो इस जगत में जो उसके अपने थे और जिन्हें वह प्रेम करता था, उन पर उसने चरम सीमा का प्रेम दिखाया।
2 शाम का खाना चल रहा था। शैतान अब तक शमौन इस्करियोती के पुत्र यहूदा के मन में यह डाल चुका था कि वह यीशु को धोखे से पकड़वाएगा। 3 यीशु यह जानता था कि परम पिता ने सब कुछ उसके हाथों सौंप दिया है और वह परमेश्वर से आया है, और परमेश्वर के पास ही वापस जा रहा है। 4 इसलिये वह खाना छोड़ कर खड़ा हो गया। उसने अपने बाहरी वस्त्र उतार दिये और एक अँगोछा अपने चारों ओर लपेट लिया। 5 फिर एक घड़े में जल भरा और अपने शिष्यों के पैर धोने लगा और उस अँगोछे से जो उसने लपेटा हुआ था, उनके पाँव पोंछने लगा।
6 फिर जब वह शमौन पतरस के पास पहुँचा तो पतरस ने उससे कहा, “प्रभु, क्या तू मेरे पाँव धो रहा है।”
7 उत्तर में यीशु ने उससे कहा, “अभी तू नहीं जानता कि मैं क्या कर रहा हूँ पर बाद में जान जायेगा।”
8 पतरस ने उससे कहा, “तू मेरे पाँव कभी भी नहीं धोयेगा।”
यीशु ने उत्तर दिया, “यदि मैं न धोऊँ तो तू मेरे पास स्थान नहीं पा सकेगा।”
9 शमौन पतरस ने उससे कहा, “प्रभु, केवल मेरे पैर ही नहीं, बल्कि मेरे हाथ और मेरा सिर भी धो दे।”
10 यीशु ने उससे कहा, “जो नहा चुका है उसे अपने पैरों के सिवा कुछ भी और धोने की आवश्यकता नहीं है। बल्कि पूरी तरह शुद्ध होता है। तुम लोग शुद्ध हो पर सबके सब नहीं।” 11 वह उसे जानता था जो उसे धोखे से पकड़वाने वाला है। इसलिए उसने कहा था, “तुम में से सभी शुद्ध नहीं हैं।”
12 जब वह उनके पाँव धो चुका तो उसने अपने बाहरी वस्त्र फिर पहन लिये और वापस अपने स्थान पर आकर बैठ गया। और उनसे बोला, “क्या तुम जानते हो कि मैंने तुम्हारे लिये क्या किया है? 13 तुम लोग मुझे ‘गुरु’ और ‘प्रभु’ कहते हो। और तुम उचित हो। क्योंकि मैं वही हूँ। 14 इसलिये यदि मैंने प्रभु और गुरु होकर भी जब तुम्हारे पैर धोये हैं तो तुम्हें भी एक दूसरे के पैर धोना चाहिये। मैंने तुम्हारे सामने एक उदाहरण रखा है 15 ताकि तुम दूसरों के साथ वही कर सको जो मैंने तुम्हारे साथ किया है। 16 मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ एक दास स्वामी से बड़ा नहीं है और न ही एक संदेशवाहक उससे बड़ा है जो उसे भेजता है। 17 यदि तुम लोग इन बातों को जानते हो और उन पर चलते हो तो तुम सुखी होगे।
18 “मैं तुम सब के बारे में नहीं कह रहा हूँ। मैं उन्हें जानता हूँ जिन्हें मैंने चुना है (और यह भी कि यहूदा विश्वासघाती है) किन्तु मैंने उसे इसलिये चुना है ताकि शास्त्र का यह वचन सत्य हो, ‘वही जिसने मेरी रोटी खायी मेरे विरोध में हो गया।’ 19 अब यह घटित होने से पहले ही मैं तुम्हें इसलिये बता रहा हूँ कि जब यह घटित हो तब तुम विश्वास करो कि वह मैं हूँ। 20 मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ कि वह जो किसी भी मेरे भेजे हुए को ग्रहण करता है, मुझको ग्रहण करता है। और जो मुझे ग्रहण करता है, उसे ग्रहण करता है जिसने मुझे भेजा है।”
यीशु का कथन: मरवाने के लिये उसे कौन पकड़वायेगा
21 यह कहने के बाद यीशु बहुत व्याकुल हुआ और साक्षी दी, “मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, तुम में से एक मुझे धोखा देकर पकड़वायेगा।”
22 तब उसके शिष्य एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे। वे निश्चय ही नहीं कर पा रहे थे कि वह किसके बारे में कह रहा है। 23 उसका एक शिष्य यीशु के निकट ही बैठा हुआ था। इसे यीशु बहुत प्यार करता था। 24 तब शमौन पतरस ने उसे इशारा किया कि पूछे वह कौन हो सकता है जिस के विषय में यीशु बता रहा था।
25 यीशु के प्रिय शिष्य ने सहज में ही उसकी छाती पर झुक कर उससे पूछा, “हे प्रभु, वह कौन है?”
26 यीशु ने उत्तर दिया, “रोटी का टुकड़ा कटोरे में डुबो कर जिसे मैं दूँगा, वही वह है।” फिर यीशु ने रोटी का टुकड़ा कटोरे में डुबोया और उसे उठा कर शमौन इस्करियोती के पुत्र यहूदा को दिया। 27 जैसे ही यहूदा ने रोटी का टुकड़ा लिया उसमें शैतान समा गया। फिर यीशु ने उससे कहा, “जो तू करने जा रहा है, उसे तुरन्त कर।” 28 किन्तु वहाँ बैठे हुओं में से किसी ने भी यह नहीं समझा कि यीशु ने उससे यह बात क्यों कही। 29 कुछ ने सोचा कि रुपयों की थैली यहूदा के पास रहती है इसलिए यीशु उससे कह रहा है कि पर्व के लिये आवश्यक सामग्री मोल ले आओ या कह रहा है कि गरीबों को वह कुछ दे दे।
30 इसलिए यहूदा ने रोटी का टुकड़ा लिया। और तत्काल चला गया। यह रात का समय था।
अपनी मृत्यु के विषय में यीशु का वचन
31 उसके चले जाने के बाद यीशु ने कहा, “मनुष्य का पुत्र अब महिमावान हुआ है। और उसके द्वारा परमेश्वर की महिमा हुई है। 32 यदि उसके द्वारा परमेश्वर की महिमा हुई है तो परमेश्वर अपने द्वारा उसे महिमावान करेगा। और वह उसे महिमा शीघ्र ही देगा।”
33 “हे मेरे प्यारे बच्चों, मैं अब थोड़ी ही देर और तुम्हारे साथ हूँ। तुम मुझे ढूँढोगे और जैसा कि मैंने यहूदी नेताओं से कहा था, तुम वहाँ नहीं आ सकते, जहाँ मैं जा रहा हूँ, वैसा ही अब मैं तुमसे कहता हूँ।
34 “मैं तुम्हें एक नयी आज्ञा देता हूँ कि तुम एक दूसरे से प्रेम करो। जैसा मैंने तुमसे प्यार किया है वैसे ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम करो। 35 यदि तुम एक दूसरे से प्रेम रखोगे तभी हर कोई यह जान पायेगा कि तुम मेरे अनुयायी हो।”
यीशु का वचन-पतरस उसे पहचानने से इन्कार करेगा
36 शमौन पतरस ने उससे पूछा, “हे प्रभु, तू कहाँ जा रहा है?”
यीशु ने उसे उत्तर दिया, “तू अब मेरे पीछे नहीं आ सकता। पर तू बाद में मेरे पीछे आयेगा।”
37 पतरस ने उससे पूछा, “हे प्रभु, अभी भी मैं तेरे पीछे क्यों नहीं आ सकता? मैं तो तेरे लिये अपने प्राण तक त्याग दूँगा।”
38 यीशु ने उत्तर दिया, “क्या? तू अपना प्राण त्यागेगा? मैं तुझे सत्य कहता हूँ कि जब तक तू तीन बार इन्कार नहीं कर लेगा तब तक मुर्गा बाँग नहीं देगा।”
यीशु का शिष्यों को समझाना
14 “तुम्हारे हृदय दुःखी नहीं होने चाहिये। परमेश्वर में विश्वास रखो और मुझमें भी विश्वास बनाये रखो। 2 मेरे परम पिता के घर में बहुत से कमरे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो मैं तुमसे कह देता। मैं तुम्हारे लिए स्थान बनाने जा रहा हूँ। 3 और यदि मैं वहाँ जाऊँ और तुम्हारे लिए स्थान तैयार करूँ तो मैं फिर यहाँ आऊँगा और अपने साथ तुम्हें भी वहाँ ले चलूँगा ताकि तुम भी वहीं रहो जहाँ मैं हूँ। 4 और जहाँ मैं जा रहा हूँ तुम वहाँ का रास्ता जानते हो।”
5 थोमा ने उससे कहा, “हे प्रभु, हम नहीं जानते तू कहाँ जा रहा है। फिर वहाँ का रास्ता कैसे जान सकते हैं?”
6 यीशु ने उससे कहा, “मैं ही मार्ग हूँ, सत्य हूँ और जीवन हूँ। बिना मेरे द्वारा कोई भी परम पिता के पास नहीं आता। 7 यदि तूने मुझे जान लिया होता तो तू परम पिता को भी जानता। अब तू उसे जानता है और उसे देख भी चुका है।”
8 फिलिप्पुस ने उससे कहा, “हे प्रभु, हमे परम पिता का दर्शन करा दे। हमें संतोष हो जायेगा।”
9 यीशु ने उससे कहा, “फिलिप्पुस मैं इतने लम्बे समय से तेरे साथ हूँ और अब भी तू मुझे नहीं जानता? जिसने मुझे देखा है, उसने परम पिता को देख लिया है। फिर तू कैसे कहता है ‘हमें परम पिता का दर्शन करा दे।’ 10 क्या तुझे विश्वास नहीं है कि मैं परम पिता में हूँ और परम पिता मुझमें है? वे वचन जो मैं तुम लोगों से कहता हूँ, अपनी ओर से ही नहीं कहता। परम पिता जो मुझमें निवास करता है, अपना काम करता है। 11 जब मैं कहता हूँ कि मैं परम पिता में हूँ और परम पिता मुझमें है तो मेरा विश्वास करो और यदि नहीं तो स्वयं कामों के कारण ही विश्वास करो।
12 “मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ, जो मुझमें विश्वास करता है, वह भी उन कार्यों को करेगा जिन्हें मैं करता हूँ। वास्तव में वह इन कामों से भी बड़े काम करेगा। क्योंकि मैं परम पिता के पास जा रहा हूँ। 13 और मैं वह सब कुछ करूँगा जो तुम लोग मेरे नाम से माँगोगे जिससे पुत्र के द्वारा परम पिता महिमावान हो। 14 यदि तुम मुझसे मेरे नाम में कुछ माँगोगे तो मैं उसे करूँगा।
पवित्र आत्मा की प्रतिज्ञा
15 “यदि तुम मुझे प्रेम करते हो, तो मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे। 16 मैं परम पिता से विनती करूँगा और वह तुम्हें एक दूसरा सहायक[a] देगा ताकि वह सदा तुम्हारे साथ रह सके। 17 यानी सत्य का आत्मा[b] जिसे जगत ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि वह उसे न तो देखता है और न ही उसे जानता है। तुम लोग उसे जानते हो क्योंकि वह आज तुम्हारे साथ रहता है और भविष्य में तुम में रहेगा।
18 “मैं तुम्हें अनाथ नहीं छोड़ूँगा। मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ। 19 कुछ ही समय बाद जगत मुझे और नहीं देखेगा किन्तु तुम मुझे देखोगे क्योंकि मैं जीवित हूँ और तुम भी जीवित रहोगे। 20 उस दिन तुम जानोगे कि मैं परम पिता में हूँ, तुम मुझ में हो और मैं तुझमें। 21 वह जो मेरे आदेशों को स्वीकार करता है और उनका पालन करता है, मुझसे प्रेम करता है। जो मुझमें प्रेम रखता है उसे मेरा परम पिता प्रेम करेगा। मैं भी उसे प्रेम करूँगा और अपने आप को उस पर प्रकट करूँगा।”
22 यहूदा ने (यहूदा इस्करियोती ने नहीं) उससे कहा, “हे प्रभु, ऐसा क्यों है कि तू अपने आपको हम पर प्रकट करना चाहता है और जगत पर नहीं?”
23 उत्तर में यीशु ने उससे कहा, “यदि कोई मुझमें प्रेम रखता है तो वह मेरे वचन का पालन करेगा। और उससे मेरा परम पिता प्रेम करेगा। और हम उसके पास आयेंगे और उसके साथ निवास करेंगे। 24 जो मुझमें प्रेम नहीं रखता, वह मेरे उपदेशों पर नहीं चलता। यह उपदेश जिसे तुम सुन रहे हो, मेरा नहीं है, बल्कि उस परम पिता का है जिसने मुझे भेजा है।
25 “ये बातें मैंने तुमसे तभी कही थीं जब मैं तुम्हारे साथ था। 26 किन्तु सहायक अर्थात् पवित्र आत्मा जिसे परम पिता मेरे नाम से भेजेगा, तुम्हें सब कुछ बतायेगा। और जो कुछ मैंने तुमसे कहा है उसे तुम्हें याद दिलायेगा।
27 “मैं तुम्हारे लिये अपनी शांति छोड़ रहा हूँ। मैं तुम्हें स्वयं अपनी शांति दे रहा हूँ पर तुम्हें इसे मैं वैसे नहीं दे रहा हूँ जैसे जगत देता है। तुम्हारा मन व्याकुल नहीं होना चाहिये और न ही उसे डरना चाहिये। 28 तुमने मुझे कहते सुना है कि मैं जा रहा हूँ और तुम्हारे पास फिर आऊँगा। यदि तुमने मुझसे प्रेम किया होता तो तुम प्रसन्न होते क्योंकि मैं परम पिता के पास जा रहा हूँ। क्योंकि परम पिता मुझ से महान है। 29 और अब यह घटित होने से पहले ही मैंने तुम्हें बता दिया है ताकि जब यह घटित हो तो तुम्हें विश्वास हो।
30 “और मैं अधिक समय तक तुम्हारे साथ बात नहीं करूँगा क्योंकि इस जगत का शासक आ रहा है। मुझ पर उसका कोई बस नहीं चलता। किन्तु ये बातें इसलिए घट रहीं हैं ताकि जगत जान जाये कि मैं परम पिता से प्रेम करता हूँ। 31 और पिता ने जैसी आज्ञा मुझे दी है, मैं वैसा ही करता हूँ।
“अब उठो, हम यहाँ से चलें।”
यीशु-सच्ची दाखलता
15 यीशु ने कहा, “सच्ची दाखलता मैं हूँ। और मेरा परम पिता देख-रेख करने वाला माली है। 2 मेरी हर उस शाखा को जिस पर फल नहीं लगता, वह काट देता है। और हर उस शाखा को जो फलती है, वह छाँटता है ताकि उस पर और अधिक फल लगें। 3 तुम लोग तो जो उपदेश मैंने तुम्हें दिया है, उसके कारण पहले ही शुद्ध हो। 4 तुम मुझमें रहो और मैं तुममें रहूँगा। वैसे ही जैसे कोई शाखा जब तक दाखलता में बनी नहीं रहती, तब तक अपने आप फल नहीं सकती वैसे ही तुम भी तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक मुझमें नहीं रहते।
5 “वह दाखलता मैं हूँ और तुम उसकी शाखाएँ हो। जो मुझमें रहता है, और मैं जिसमें रहता हूँ वह बहुत फलता है क्योंकि मेरे बिना तुम कुछ भी नहीं कर सकते। 6 यदि कोई मुझमें नहीं रहता तो वह टूटी शाखा की तरह फेंक दिया जाता है और सूख जाता है। फिर उन्हें बटोर कर आग में झोंक दिया जाता है और उन्हें जला दिया जाता है। 7 यदि तुम मुझमें रहो, और मेरे उपदेश तुम में रहें, तो जो कुछ तुम चाहते हो माँगो, वह तुम्हें मिलेगा। 8 इससे मेरे परम पिता की महिमा होती है कि तुम बहुत सफल होवो और मेरे अनुयायी रहो।
9 “जैसे परम पिता ने मुझे प्रेम किया है, मैंने भी तुम्हें वैसे ही प्रेम किया है। मेरे प्रेम में बने रहो। 10 यदि तुम मेरे आदेशों का पालन करोगे तो तुम मेरे प्रेम में बने रहोगे। वैसे ही जैसे मैं अपने परम पिता के आदेशों को पालते हुए उसके प्रेम में बना रहता हूँ। 11 मैंने ये बातें तुमसे इसलिये कहीं हैं कि मेरा आनन्द तुम में रहे और तुम्हारा आनन्द परिपूर्ण हो जाये। यह मेरा आदेश है 12 कि तुम आपस में प्रेम करो, वैसे ही जैसे मैंने तुम से प्रेम किया है। 13 बड़े से बड़ा प्रेम जिसे कोई व्यक्ति कर सकता है, वह है अपने मित्रों के लिए प्राण न्योछावर कर देना। 14 जो आदेश तुम्हें मैं देता हूँ, यदि तुम उन पर चलते रहो तो तुम मेरे मित्र हो। 15 अब से मैं तुम्हें दास नहीं कहूँगा क्योंकि कोई दास नहीं जानता कि उसका स्वामी क्या कर रहा है बल्कि मैं तुम्हें मित्र कहता हूँ। क्योंकि मैंने तुम्हें वह हर बात बता दी है, जो मैंने अपने परम पिता से सुनी है।
16 “तुमने मुझे नहीं चुना, बल्कि मैंने तुम्हें चुना है और नियत किया है कि तुम जाओ और सफल बनो। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी सफलता बनी रहे ताकि मेरे नाम में जो कुछ तुम चाहो, परम पिता तुम्हें दे। 17 मैं तुम्हें यह आदेश दे रहा हूँ कि तुम एक दूसरे से प्रेम करो।
यीशु की चेतावनी
18 “यदि संसार तुमसे बैर करता है तो याद रखो वह तुमसे पहले मुझसे बैर करता है। 19 यदि तुम जगत के होते तो जगत तुम्हें अपनों की तरह प्यार करता पर तुम जगत के नहीं हो मैंने तुम्हें जगत में से चुन लिया है और इसीलिए जगत तुमसे बैर करता है।
20 “मेरा वचन याद रखो एक दास अपने स्वामी से बड़ा नहीं है। इसीलिये यदि उन्होंने मुझे यातनाएँ दी हैं तो वे तुम्हें भी यातनाएँ देंगे। और यदि उन्होंने मेरा वचन माना तो वे तुम्हारा वचन भी मानेंगे। 21 पर वे मेरे कारण तुम्हारे साथ ये सब कुछ करेंगे क्योंकि वे उसे नहीं जानते जिसने मुझे भेजा है। 22 यदि मैं न आता और उनसे बातें न करता तो वे किसी भी पाप के दोषी न होते। पर अब अपने पाप के लिए उनके पास कोई बहाना नहीं है।
23 “जो मुझसे बैर करता है वह परम पिता से बैर करता है। 24 यदि मैं उनके बीच वे कार्य नहीं करता जो कभी किसी ने नहीं किये तो वे पाप के दोषी न होते पर अब जब वे देख चुके हैं तब भी मुझसे और मेरे परम पिता दोनों से बैर रखते हैं। 25 किन्तु यह इसलिये हुआ कि उनके व्यवस्था-विधान में जो लिखा है वह सच हो सके: ‘उन्होंने बेकार ही मुझसे बैर किया है।’
26 “जब वह सहायक (जो सत्य की आत्मा है और परम पिता की ओर से आता है) तुम्हारे पास आयेगा जिसे मैं परम पिता की ओर से भेजूँगा, वह मेरी ओर से साक्षी देगा। 27 और तुम भी साक्षी दोगे क्योंकि तुम आदि से ही मेरे साथ रहे हो।
16 “ये बातें मैंने इसलिये तुमसे कही हैं कि तुम्हारा विश्वास न डगमगा जाये। 2 वे तुम्हें आराधनालयों से निकाल देंगे। वास्तव में वह समय आ रहा है जब तुम में से किसी को भी मार कर हर कोई सोचेगा कि वह परमेश्वर की सेवा कर रहा है। 3 वे ऐसा इसलिए करेंगे कि वे न तो परम पिता को जानते हैं और न ही मुझे। 4 किन्तु मैंने तुमसे यह इसलिये कहा है ताकि जब उनका समय आये तो तुम्हें याद रहे कि मैंने उनके विषय में तुमको बता दिया था।
पवित्र आत्मा के कार्य
“आरम्भ में ये बातें मैंने तुम्हें नहीं बतायी थीं क्योंकि मैं तुम्हारे साथ था। 5 किन्तु अब मैं उसके पास जा रहा हूँ जिसने मुझे भेजा है और तुममें से मुझ से कोई नहीं पूछेगा, ‘तू कहाँ जा रहा है?’ 6 क्योंकि मैंने तुम्हें ये बातें बता दी हैं, तुम्हारे हृदय शोक से भर गये हैं। 7 किन्तु मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ इसमें तुम्हारा भला है कि मैं जा रहा हूँ। क्योंकि यदि मैं न जाऊँ तो सहायक तुम्हारे पास नहीं आयेगा। किन्तु यदि मैं चला जाता हूँ तो मैं उसे तुम्हारे पास भेज दूँगा।
8 “और जब वह आयेगा तो पाप, धार्मिकता और न्याय के विषय में जगत के संदेह दूर करेगा। 9 पाप के विषय में इसलिये कि वे मुझ में विश्वास नहीं रखते, 10 धार्मिकता के विषय में इसलिये कि अब मैं परम पिता के पास जा रहा हूँ। और तुम मुझे अब और अधिक नहीं देखोगे। 11 न्याय के विषय में इसलिये कि इस जगत के शासक को दोषी ठहराया जा चुका है।
12 “मुझे अभी तुमसे बहुत सी बातें कहनी हैं किन्तु तुम अभी उन्हें सह नहीं सकते। 13 किन्तु जब सत्य का आत्मा आयेगा तो वह तुम्हें पूर्ण सत्य की राह दिखायेगा क्योंकि वह अपनी ओर से कुछ नहीं कहेगा। वह जो कुछ सुनेगा वही बतायेगा। और जो कुछ होने वाला है उसको प्रकट करेगा। 14 वह मेरी महिमा करेगा क्योंकि जो मेरा है उसे लेकर वह तुम्हें बतायेगा। हर वस्तु जो पिता की है, वह मेरी है। 15 इसीलिए मैंने कहा है कि जो कुछ मेरा है वह उसे लेगा और तुम्हें बतायेगा।
शोक आनन्द में बदल जायेगा
16 “कुछ ही समय बाद तुम मुझे और अधिक नहीं देख पाओगे। और थोड़े समय बाद तुम मुझे फिर देखोगे।”
17 तब उसके कुछ शिष्यों ने आपस में कहा, “यह क्या है जो वह हमें बता रहा है, ‘थोड़ी देर बाद तुम मुझे नहीं देख पाओगे’ और ‘थोड़े समय बाद तुम मुझे फिर देखोगे?’ और ‘मैं परम पिता के पास जा रहा हूँ।’” 18 फिर वे कहने लगे, “यह ‘थोड़ी देर बाद’ क्या है? जिसके बारे में वह बता रहा है। वह क्या कह रहा है हम समझ नहीं रहे हैं।”
19 यीशु समझ गया कि वे उससे प्रश्न करना चाहते हैं। इसलिये उसने उनसे कहा, “क्या तुम मैंने यह जो कहा है, उस पर आपस में सोच-विचार कर रहे हो, ‘कुछ ही समय बाद तुम मुझे और अधिक नही देख पाओगे।’ और ‘फिर थोड़े समय बाद तुम मुझे देखोगे?’ 20 मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ, तुम विलाप करोगे और रोओगे किन्तु यह जगत प्रसन्न होगा। तुम्हें शोक होगा किन्तु तुम्हारा शोक आनन्द में बदल जायेगा।
21 “जब कोई स्त्री जनने लगती है, तब उसे पीड़ा होती है क्योंकि उसकी पीड़ा की घड़ी आ चुकी होती है। किन्तु जब वह बच्चा जन चुकी होती है तो इस आनन्द से कि एक व्यक्ति इस संसार में पैदा हुआ है वह आनन्दित होती है और अपनी पीड़ा को भूल जाती है। 22 सो तुम सब भी इस समय वैसे ही दुःखी हो किन्तु मैं तुमसे फिर मिलूँगा और तुम्हारे हृदय आनन्दित होंगे। और तुम्हारे आनन्द को तुमसे कोई छीन नहीं सकेगा। 23 उस दिन तुम मुझसे कोई प्रश्न नहीं पूछोगे। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ मेरे नाम में परम पिता से तुम जो कुछ भी माँगोगे वह उसे तुम्हें देगा। 24 अब तक मेरे नाम में तुमने कुछ नहीं माँगा है। माँगो, तुम पाओगे। ताकि तुम्हें भरपूर आनन्द हो।
जगत पर विजय
25 “मैंने ये बातें तुम्हें दृष्टान्त देकर बतायी हैं। वह समय आ रहा है जब मैं तुमसे दृष्टान्त दे-देकर और अधिक समय बात नहीं करूँगा। बल्कि परम पिता के विषय में खोल कर तुम्हें बताऊँगा। 26 उस दिन तुम मेरे नाम में माँगोगे और मैं तुमसे यह नहीं कहता कि तुम्हारी ओर से मैं परम पिता से प्रार्थना करूँगा। 27 परम पिता स्वयं तुम्हें प्यार करता है क्योंकि तुमने मुझे प्यार किया है। और यह माना है कि मैं परम पिता से आया हूँ। 28 मैं परम पिता से प्रकट हुआ और इस जगत में आया। और अब मैं इस जगत को छोड़कर परम पिता के पास जा रहा हूँ।”
29 उसके शिष्यों ने कहा, “देख अब तू बिना किसी दृष्टान्त को खोल कर बता रहा है। 30 अब हम समझ गये हैं कि तू सब कुछ जानता है। अब तुझे अपेक्षा नहीं है कि कोई तुझसे प्रश्न पूछे। इससे हमें यह विश्वास होता है कि तू परमेश्वर से प्रकट हुआ है।”
31 यीशु ने इस पर उनसे कहा, “क्या तुम्हें अब विश्वास हुआ है? 32 सुनो, समय आ रहा है, बल्कि आ ही गया है जब तुम सब तितर-बितर हो जाओगे और तुम में से हर कोई अपने-अपने घर लौट जायेगा और मुझे अकेला छोड़ देगा किन्तु मैं अकेला नहीं हूँ क्योंकि मेरा परम पिता मेरे साथ है।
33 “मैंने ये बातें तुमसे इसलिये कहीं कि मेरे द्वारा तुम्हें शांति मिले। जगत में तुम्हें यातना मिली है किन्तु साहस रखो, मैंने जगत को जीत लिया है।”
उत्पत्ति 1-2
1 आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी को बनाया। 2 पृथ्वी बेडौल और सुनसान थी। धरती पर कुछ भी नहीं था। समुद्र पर अंधेरा छाया था और परमेश्वर की आत्मा जल के ऊपर मण्डराती थी।[a]
पहला दिन–उजियाला
3 तब परमेश्वर ने कहा, “उजियाला हो”[b] और उजियाला हो गया। 4 परमेश्वर ने उजियाले को देखा और वह जान गया कि यह अच्छा है। तब परमेश्वर ने उजियाले को अंधियारे से अलग किया। 5 परमेश्वर ने उजियाले का नाम “दिन” और अंधियारे का नाम “रात” रखा।
शाम हुई और तब सवेरा हुआ। यह पहला दिन था।
दूसरा दिन—आकाश
6 तब परमेश्वर ने कहा, “जल को दो भागों में अलग करने के लिए वायुमण्डल[c] हो जाए।” 7 इसलिए परमेश्वर ने वायुमण्डल बनाया और जल को अलग किया। कुछ जल वायुमण्डल के ऊपर था और कुछ वायुमण्डल के नीचे। 8 परमेश्वर ने वायुमण्डल को “आकाश” कहा! तब शाम हुई और सवेरा हुआ। यह दूसरा दिन था।
तीसरा दिन—सूखी धरती और पेड़ पौधे
9 और तब परमेश्वर ने कहा, “पृथ्वी का जल एक जगह इकट्ठा हो जिससे सूखी भूमि दिखाई दे” और ऐसा ही हुआ। 10 परमेश्वर ने सूखी भूमि का नाम “पृथ्वी” रखा और जो पानी इकट्ठा हुआ था, उसे “समुद्र” का नाम दिया। परमेश्वर ने देखा कि यह अच्छा है।
11 तब परमेश्वर ने कहा, “पृथ्वी, घास, पौधे जो अन्न उत्पन्न करते हैं, और फलों के पेड़ उगाए। फलों के पेड़ ऐसे फल उत्पन्न करें जिनके फलों के अन्दर बीज हों और हर एक पौधा अपनी जाति का बीज बनाए। इन पौधों को पृथ्वी पर उगने दो” और ऐसा ही हुआ। 12 पृथ्वी ने घास और पौधे उपजाए जो अन्न उत्पन्न करते हैं और ऐसे पेड़, पौधे उगाए जिनके फलों के अन्दर बीज होते हैं। हर एक पौधे ने अपने जाति अनुसार बीज उत्पन्न किए और परमेश्वर ने देखा कि यह अच्छा है।
13 तब शाम हुई और सवेरा हुआ। यह तीसरा दिन था।
चौथा दिन—सूरज, चाँद और तारे
14 तब परमेश्वर ने कहा, “आकाश में ज्योति होने दो। यह ज्योति दिन को रात से अलग करेंगी। यह ज्योति एक विशेष चिन्ह के रूप में प्रयोग की जाएंगी जो यह बताएंगी कि विशेष सभाएं कब शुरू की जाएं और यह दिनों तथा वर्षों के समय को निश्चित करेंगी। 15 पृथ्वी पर प्रकाश देने के लिए आकाश में ज्योति ठहरें” और ऐसा ही हुआ।
16 तब परमेश्वर ने दो बड़ी ज्योतियाँ बनाईं। परमेश्वर ने उन में से बड़ी ज्योति को दिन पर राज करने के लिए बनाया और छोटी को रात पर राज करने के लिए बनाया। परमेश्वर ने तारे भी बनाए। 17 परमेश्वर ने इन ज्योतियों को आकाश में इसलिए रखा कि वेह पृथ्वी पर चमकें। 18 परमेश्वर ने इन ज्योतियों को आकाश में इसलिए रखा कि वह दिन तथा रात पर राज करें। इन ज्योतियों ने उजियाले को अंधकार से अलग किया और परमेश्वर ने देखा कि यह अच्छा है।
19 तब शाम हुई और सवेरा हुआ। यह चौथा दिन था।
पाँचवाँ दिन—मछलियाँ और पक्षी
20 तब परमेश्वर ने कहा, “जल, अनेक जलचरों से भर जाए और पक्षी पृथ्वी के ऊपर वायुमण्डल में उड़ें।” 21 इसलिए परमेश्वर ने समुद्र में बहुत बड़े—बड़े जलजन्तु बनाए। परमेश्वर ने समुद्र में विचरण करने वाले प्राणियों को बनाया। समुद्र में भिन्न—भिन्न जाति के जलजन्तु हैं। परमेश्वर ने इन सब की सृष्टि की। परमेश्वर ने हर तरह के पक्षी भी बनाए जो आकाश में उड़ते हैं। परमेश्वर ने देखा कि यह अच्छा है।
22 परमेश्वर ने इन जानवरों को आशीष दी, और कहा, “जाओ और बहुत से बच्चे उत्पन्न करो और समुद्र के जल को भर दो। पक्षी भी बहुत बढ़ जाएं।”
23 तब शाम हुई और सवेरा हुआ। यह पाँचवाँ दिन था।
छठवाँ दिन—भूमि के जीवजन्तु और मनुष्य
24 तब परमेश्वर ने कहा, “पृथ्वी हर एक जाति के जीवजन्तु उत्पन्न करे। बहुत से भिन्न जाति के जानवर हों। हर जाति के बड़े जानवर और छोटे रेंगनेवाले जानवर हों और यह जानवर अपनी जाति के अनुसार और जानवर बनाएं” और यही सब हुआ।
25 तो, परमेश्वर ने हर जाति के जानवरों को बनाया। परमेश्वर ने जंगली जानवर, पालतू जानवर, और सभी छोटे रेंगनेवाले जीव बनाए और परमेश्वर ने देखा कि यह अच्छा है।
26 तब परमेश्वर ने कहा, “अब हम मनुष्य बनाएं। हम मनुष्य को अपने स्वरूप जैसा बनाएगे। मनुष्य हमारी तरह होगा। वह समुद्र की सारी मछलियों पर और आकाश के पक्षियों पर राज करेगा। वह पृथ्वी के सभी बड़े जानवरों और छोटे रेंगनेवाले जीवों पर राज करेगा।”
27 इसलिए परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में[d] बनाया। परमेश्वर ने मनुष्य को अपने ही स्वरुप में सृजा। परमेश्वर ने उन्हें नर और नारी बनाया। 28 परमेश्वर ने उन्हें आशीष दी। परमेश्वर ने उनसे कहा, “तुम्हारी बहुत सी संताने हों। पृथ्वी को भर दो और उस पर राज करो। समुद्र की मछलियों और आकाश के पक्षियों पर राज करो। हर एक पृथ्वी के जीवजन्तु पर राज करो।”
29 परमेश्वर ने कहा, “देखो, मैंने तुम लोगों को सभी बीज वाले पेड़ पौधे और सारे फलदार पेड़ दिए हैं। ये अन्न तथा फल तुम्हारा भोजन होगा। 30 मैं प्रत्येक हरे पेड़ पौधो जानवरों के लिए दे रहा हूँ। ये हरे पेड़—पौधे उनका भोजन होगा। पृथ्वी का हर एक जानवर, आकाश का हर एक पक्षी और पृथ्वी पर रेंगने वाले सभी जीवजन्तु इस भोजन को खाएंगे।” ये सभी बातें हुईं।
31 परमेश्वर ने अपने द्वारा बनाई हर चीज़ को देखा और परमेश्वर ने देखा कि हर चीज़ बहुत अच्छी है।
शाम हुई और तब सवेरा हुआ। यह छठवाँ दिन था।
सातवाँ दिन—विश्राम
2 इस तरह पृथ्वी, आकाश और उसकी प्रत्येक वस्तु की रचना पूरी हुई। 2 परमेश्वर ने अपने किए जा रहे काम को पूरा कर लिया। अतः सातवें दिन परमेश्वर ने अपने काम से विश्राम किया। 3 परमेश्वर ने सातवें दिन को आशीषित किया और उसे पवित्र दिन बना दिया। परमेश्वर ने उस दिन को पवित्र दिन इसलिए बनाया कि संसार को बनाते समय जो काम वह कर रहा था उन सभी कार्यों से उसने उस दिन विश्राम किया।
मानव जाति का आरम्भ
4 यह पृथ्वी और आकाश का इतिहास है। यह कथा उन चीज़ों की है, जो परमेश्वर द्वारा पृथ्वी और आकाश बनाते समय, घटित हुईं। 5 तब पृथ्वी पर कोई पेड़ पौधा नहीं था और खेतों में कुछ भी नहीं उग रहा था, क्योंकि यहोवा ने तब तक पृथ्वी पर वर्षा नहीं भेजी थी तथा पेड़ पौधों की देख—भाल करने वाला कोई व्यक्ति भी नहीं था।
6 परन्तु कोहरा पृथ्वी से उठता था और जल सारी पृथ्वी को सींचता था। 7 तब यहोवा परमेश्वर ने पृथ्वी से धूल उठाई और मनुष्य को बनाया। यहोवा ने मनुष्य की नाक में जीवन की साँस फूँकी और मनुष्य एक जीवित प्राणी बन गया। 8 तब यहोवा परमेश्वर ने पूर्व में अदन नामक जगह में एक बाग लगाया। यहोवा परमेश्वर ने अपने बनाए मनुष्य को इसी बाग में रखा। 9 यहोवा परमेश्वर ने हर एक सुन्दर पेड़ और भोजन के लिए सभी अच्छे पेड़ों को उस बाग में उगाया। बाग के बीच में परमेश्वर ने जीवन के पेड़ को रखा और उस पेड़ को भी रखा जो अच्छे और बुरे की जानकारी देता है।
10 अदन से होकर एक नदी बहती थी और वह बाग़ को पानी देती थी। वह नदी आगे जाकर चार छोटी नदियाँ बन गई। 11 पहली नदी का नाम पीशोन है। यह नदी हवीला प्रदेश के चारों ओर बहती है। 12 (उस प्रदेश में सोना है और वह सोना अच्छा है। मोती और गोमेदक रत्न उस प्रदेश में हैं।) 13 दूसरी नदी का नाम गीहोन है जो सारे कूश प्रदेश के चारों ओर बहती है। 14 तीसरी नदी का नाम दजला है। यह नदी अश्शूर के पूर्व में बहती है। चौथी नदी फरात है।
15 यहोवा ने मनुष्य को अदन के बाग में रखा। मनुष्य का काम पेड़—पौधे लगाना और बाग की देख—भाल करना था। 16 यहोवा परमेश्वर ने मनुष्य को आज्ञा दी, “तुम बग़ीचे के किसी भी पेड़ से फल खा सकते हो। 17 लेकिन तुम अच्छे और बुरे की जानकारी देने वाले पेड़ का फल नहीं खा सकते। यदि तुमने उस पेड़ का फल खा लिया तो तुम मर जाओगे।”
पहली स्त्री
18 तब यहोवा परमेश्वर ने कहा, “मैं समझता हूँ कि मनुष्य का अकेला रहना ठीक नहीं है। मैं उसके लिए एक सहायक बनाऊँगा जो उसके लिए उपयुक्त होगा।”
19 यहोवा ने पृथ्वी के हर एक जानवर और आकाश के हर एक पक्षी को भूमि की मिट्टी से बनाया। यहोवा इन सभी जीवों को मनुष्य के सामने लाया और मनुष्य ने हर एक का नाम रखा। 20 मनुष्य ने पालतू जानवरों, आकाश के सभी पक्षियों और जंगल के सभी जानवरों का नाम रखा। मनुष्य ने अनेक जानवर और पक्षी देखे लेकिन मनुष्य कोई ऐसा सहायक नहीं पा सका जो उसके योग्य हो। 21 अतः यहोवा परमेश्वर ने मनुष्य को गहरी नींद में सुला दिया और जब वह सो रहा था, यहोवा परमेश्वर ने मनुष्य के शरीर से एक पसली निकाल ली। तब यहोवा ने मनुष्य की उस त्वचा को बन्द कर दिया जहाँ से उसने पसली निकाली थी। 22 यहोवा परमेश्वर ने मनुष्य की पसली से स्त्री की रचना की। तब यहोवा परमेश्वर स्त्री को मनुष्य के पास लाया। 23 और मनुष्य ने कहा,
“अन्तत! हमारे समाने एक व्यक्ति।
इसकी हड्डियाँ मेरी हड्डियों से आईं
इसका शरीर मेरे शरीर से आया।
क्योंकि यह मनुष्य से निकाली गई,
इसलिए मैं इसे स्त्री कहूँगा।”
24 इसलिए पुरुष अपने माता—पिता को छोड़कर अपनी पत्नी के साथ रहेगा और वे दोनों एक तन हो जाएंगे।
25 मनुष्य और उसकी पत्नी बाग में नंगे थे, परन्तु वे लजाते नहीं थे।
मैथ्यू 5-7
यीशु का उपदेश
5 यीशु ने जब यह बड़ी भीड़ देखी, तो वह एक पहाड़ पर चला गया। वहाँ वह बैठ गया और उसके अनुयायी उसके पास आ गये। 2 तब यीशु ने उन्हें उपदेश देते हुए कहा:
3 “धन्य हैं वे जो हृदय से दीन हैं,
स्वर्ग का राज्य उनके लिए है।
4 धन्य हैं वे जो शोक करते हैं,
क्योंकि परमेश्वर उन्हें सांत्वना देता है
5 धन्य हैं वे जो नम्र हैं
क्योंकि यह पृथ्वी उन्हीं की है।
6 धन्य हैं वे जो नीति के प्रति भूखे और प्यासे रहते हैं!
क्योंकि परमेश्वर उन्हें संतोष देगा, तृप्ति देगा।
7 धन्य हैं वे जो दयालु हैं
क्योंकि उन पर दया गगन से बरसेगी।
8 धन्य हैं वे जो हृदय के शुद्ध हैं
क्योंकि वे परमेश्वर के दर्शन करेंगे।
9 धन्य हैं वे जो शान्ति के काम करते हैं।
क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलायेंगे।
10 धन्य हैं वे जो नीति के हित में यातनाएँ भोगते हैं।
स्वर्ग का राज्य उनके लिये ही है।
11 “और तुम भी धन्य हो क्योंकि जब लोग तुम्हारा अपमान करें, तुम्हें यातनाएँ दें, और मेरे लिये तुम्हारे विरोध में तरह तरह की झूठी बातें कहें, बस इसलिये कि तुम मेरे अनुयायी हो, 12 तब तुम प्रसन्न रहना, आनन्द से रहना, क्योंकि स्वर्ग में तुम्हें इसका प्रतिफल मिलेगा। यह वैसा ही है जैसे तुमसे पहले के भविष्यवक्ताओं को लोगों ने सताया था।
तुम नमक के समान हो: तुम प्रकाश के समान हो
13 “तुम समूची मानवता के लिये नमक हो। किन्तु यदि नमक ही बेस्वाद हो जाये तो उसे फिर नमकीन नहीं बनाया जा सकता है। वह फिर किसी काम का नहीं रहेगा। केवल इसके, कि उसे बाहर लोगों की ठोकरों में फेंक दिया जाये।
14 “तुम जगत के लिये प्रकाश हो। एक ऐसा नगर जो पहाड़ की चोटी पर बसा है, छिपाये नहीं छिपाया जा सकता। 15 लोग दीया जलाकर किसी बाल्टी के नीचे उसे नहीं रखते बल्कि उसे दीवट पर रखा जाता है और वह घर के सब लोगों को प्रकाश देता है। 16 लोगों के सामने तुम्हारा प्रकाश ऐसे चमके कि वे तुम्हारे अच्छे कामों को देखें और स्वर्ग में स्थित तुम्हारे परम पिता की महिमा का बखान करें।
यीशु और यहूदी धर्म-नियम
17 “यह मत सोचो कि मैं मूसा के धर्म-नियम या भविष्यवक्ताओं के लिखे को नष्ट करने आया हूँ। मैं उन्हें नष्ट करने नहीं बल्कि उन्हें पूर्ण करने आया हूँ। 18 मैं तुम से सत्य कहता हूँ कि जब तक धरती और आकाश समाप्त नहीं हो जाते, मूसा की व्यवस्था का एक एक शब्द और एक एक अक्षर बना रहेगा, वह तब तक बना रहेगा जब तक वह पूरा नहीं हो लेता।
19 “इसलिये जो इन आदेशों में से किसी छोटे से छोटे को भी तोड़ता है और लोगों को भी वैसा ही करना सिखाता है, वह स्वर्ग के राज्य में कोई महत्व नहीं पायेगा। किन्तु जो उन पर चलता है और दूसरों को उन पर चलने का उपदेश देता है, वह स्वर्ग के राज्य में महान समझा जायेगा। 20 मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि जब तक तुम व्यवस्था के उपदेशकों और फरीसियों से धर्म के आचरण में आगे न निकल जाओ, तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं पाओगे।
क्रोध
21 “तुम जानते हो कि हमारे पूर्वजों से कहा गया था ‘हत्या मत करो और यदि कोई हत्या करता है तो उसे अदालत में उसका जवाब देना होगा।’ 22 किन्तु मैं तुमसे कहता हूँ कि जो व्यक्ति अपने भाई पर क्रोध करता है, उसे भी अदालत में इसके लिये उत्तर देना होगा और जो कोई अपने भाई का अपमान करेगा उसे सर्वोच्च संघ के सामने जवाब देना होगा और यदि कोई अपने किसी बन्धु से कहे ‘अरे असभ्य, मूर्ख।’ तो नरक की आग के बीच उस पर इसकी जवाब देही होगी।
23 “इसलिये यदि तू वेदी पर अपनी भेंट चढ़ा रहा है और वहाँ तुझे याद आये कि तेरे भाई के मन में तेरे लिए कोई विरोध है 24 तो तू उपासना की भेंट को वहीं छोड़ दे और पहले जा कर अपने उस बन्धु से सुलह कर। और फिर आकर भेंट चढ़ा।
25 “तेरा शत्रु तुझे न्यायालय में ले जाता हुआ जब रास्ते में ही हो, तू झटपट उसे अपना मित्र बना ले कहीं वह तुझे न्यायी को न सौंप दे और फिर न्यायी सिपाही को, जो तुझे जेल में डाल देगा। 26 मैं तुझे सत्य बताता हूँ तू जेल से तब तक नहीं छूट पायेगा जब तक तू पाई-पाई न चुका दे।
व्यभिचार
27 “तुम जानते हो कि यह कहा गया है, ‘व्यभिचार मत करो।’ 28 किन्तु मैं तुमसे कहता हूँ कि यदि कोई किसी स्त्री को वासना की आँख से देखता है, तो वह अपने मन में पहले ही उसके साथ व्यभिचार कर चुका है। 29 इसलिये यदि तेरी दाहिनी आँख तुझ से पाप करवाये तो उसे निकाल कर फेंक दे। क्योंकि तेरे लिये यह अच्छा है कि तेरे शरीर का कोई एक अंग नष्ट हो जाये बजाय इसके कि तेरा सारा शरीर ही नरक में डाल दिया जाये। 30 और यदि तेरा दाहिना हाथ तुझ से पाप करवाये तो उसे काट कर फेंक दे। क्योंकि तेरे लिये यह अच्छा है कि तेरे शरीर का एक अंग नष्ट हो जाये बजाय इसके कि तेरा सम्पूर्ण शरीर ही नरक में चला जाये।
तलाक
31 “कहा गया है, ‘जब कोई अपनी पत्नी को तलाक देता है तो उसे अपनी पत्नी को लिखित रूप में तलाक देना चाहिये।’ 32 किन्तु मैं तुमसे कहता हूँ कि हर वह व्यक्ति जो अपनी पत्नी को तलाक देता है, यदि उसने यह तलाक उसके व्यभिचारी आचरण के कारण नहीं दिया है तो जब वह दूसरा विवाह करती है, तो मानो वह व्यक्ति ही उससे व्यभिचार करवाता है। और जो कोई उस छोड़ी हुई स्त्री से विवाह रचाता है तो वह भी व्यभिचार करता है।
शपथ
33 “तुमने यह भी सुना है कि हमारे पूर्वजों से कहा गया था, ‘तू शपथ मत तोड़ बल्कि प्रभु से की गयी प्रतिज्ञाओं को पूरा कर।’[a] 34 किन्तु मैं तुझसे कहता हूँ कि शपथ ले ही मत। स्वर्ग की शपथ मत ले क्योंकि वह परमेश्वर का सिंहासन है। 35 धरती की शपथ मत ले क्योंकि यह उसकी पाँव की चौकी है। यरूशलेम की शपथ मत ले क्योंकि यह महा सम्राट का नगर हैं। 36 अपने सिर की शपथ भी मत ले क्योंकि तू किसी एक बाल तक को सफेद या काला नहीं कर सकता है। 37 यदि तू ‘हाँ’ चाहता है तो केवल ‘हाँ’ कह और ‘ना’ चाहता है तो केवल ‘ना’ क्योंकि इससे अधिक जो कुछ है वह शैतान से है।
बदले की भावना मत रख
38 “तुमने सुना है: कहा गया है, ‘आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत।’ 39 किन्तु मैं तुझ से कहता हूँ कि किसी बुरे व्यक्ति का भी विरोध मत कर। बल्कि यदि कोई तेरे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी उसकी तरफ़ कर दे। 40 यदि कोई तुझ पर मुकद्दमा चला कर तेरा कुर्ता भी उतरवाना चाहे तो तू उसे अपना चोगा तक दे दे। 41 यदि कोई तुझे एक मील चलाए तो तू उसके साथ दो मील चला जा। 42 यदि कोई तुझसे कुछ माँगे तो उसे वह दे दे। जो तुझसे उधार लेना चाहे, उसे मना मत कर।
सबसे प्रेम रखो
43 “तुमने सुना है: कहा गया है ‘तू अपने पड़ौसी से प्रेम कर और शत्रु से घृणा कर।’ 44 किन्तु मैं कहता हूँ अपने शत्रुओं से भी प्यार करो। जो तुम्हें यातनाएँ देते हैं, उनके लिये भी प्रार्थना करो। 45 ताकि तुम स्वर्ग में रहने वाले अपने पिता की सिद्ध संतान बन सको। क्योंकि वह बुरों और भलों सब पर सूर्य का प्रकाश चमकाता है। पापियों और धर्मियों, सब पर वर्षा कराता है। 46 यह मैं इसलिये कहता हूँ कि यदि तू उन्हीं से प्रेम करेगा जो तुझसे प्रेम करते हैं तो तुझे क्या फल मिलेगा। क्या ऐसा तो कर वसूल करने वाले भी नहीं करते? 47 यदि तू अपने भाई बंदों का ही स्वागत करेगा तो तू औरों से अधिक क्या कर रहा है? क्या ऐसा तो विधर्मी भी नहीं करते? 48 इसलिये परिपूर्ण बनो, वैसे ही जैसे तुम्हारा स्वर्ग-पिता परिपूर्ण है।
दान की शिक्षा
6 “सावधान रहो! परमेश्वर चाहता है, उन कामों का लोगों के सामने दिखावा मत करो नहीं तो तुम अपने परम-पिता से, जो स्वर्ग में है, उसका प्रतिफल नहीं पाओगे।
2 “इसलिये जब तुम किसी दीन-दुःखी को दान देते हो तो उसका ढोल मत पीटो, जैसा कि आराधनालयों और गलियों में कपटी लोग औंरों से प्रशंसा पाने के लिए करते हैं। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि उन्हें तो इसका पूरा फल पहले ही दिया जा चुका है। 3 किन्तु जब तू किसी दीन दुःखी को देता है तो तेरा बायाँ हाथ न जान पाये कि तेरा दाहिना हाथ क्या कर रहा है। 4 ताकि तेरा दान छिपा रहे। तेरा वह परम पिता जो तू छिपाकर करता है उसे भी देखता है, वह तुझे उसका प्रतिफल देगा।
प्रार्थना का महत्व
5 “जब तुम प्रार्थना करो तो कपटियों की तरह मत करो। क्योंकि वे यहूदी आराधनालयों और गली के नुक्कड़ों पर खड़े होकर प्रार्थना करना चाहते हैं ताकि लोग उन्हें देख सकें। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि उन्हें तो उसका फल पहले ही मिल चुका है। 6 किन्तु जब तू प्रार्थना करे, अपनी कोठरी में चला जा और द्वार बन्द करके गुप्त रूप से अपने परम-पिता से प्रार्थना कर। फिर तेरा परम-पिता जो तेरे छिपकर किए गए कर्मों को देखता है, तुझे उन का प्रतिफल देगा।
7 “जब तुम प्रार्थना करते हो तो विधर्मियों की तरह यूँ ही निरर्थक बातों को बार-बार मत दुहराते रहो। वे तो यह सोचते हैं कि उनके बहुत बोलने से उनकी सुन ली जायेगी। 8 इसलिये उनके जैसे मत बनो क्योंकि तुम्हारा परम-पिता तुम्हारे माँगने से पहले ही जानता है कि तुम्हारी आवश्यकता क्या है। 9 इसलिए इस प्रकार प्रार्थना करो:
‘स्वर्ग धाम में हमारे पिता,
तेरा नाम पवित्र रहे।
10 जगत में तेरा राज्य आए।
तेरी इच्छा जैसे स्वर्ग में पूरी होती है वैसे ही पृथ्वी पर भी पूरी हो।
11 दिन प्रतिदिन का आहार तू आज हमें दे।
12 अपराधों को क्षमा दान कर
जैसे हमने अपने अपराधी क्षमा किये।
13 हमें परीक्षा में न ला
परन्तु बुराई से बचा।’[b]
14 यदि तुम लोगों के अपराधों को क्षमा करोगे तो तुम्हारा स्वर्ग-पिता भी तुम्हें क्षमा करेगा। 15 किन्तु यदि तुम लोगों को क्षमा नहीं करोगे तो तुम्हारा परम-पिता भी तुम्हारे पापों के लिए क्षमा नहीं देगा।
उपवास की व्याख्या
16 “जब तुम उपवास करो तो मुँह लटकाये कपटियों जैसे मत दिखो। क्योंकि वे तरह तरह से मुँह बनाते हैं ताकि वे लोगों को जतायें कि वे उपवास कर रहे हैं। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ उन्हें तो पहले ही उनका प्रतिफल मिल चुका है। 17 किन्तु जब तू उपवास रखे तो अपने सिर पर सुगंध मल और अपना मुँह धो। 18 ताकि लोग यह न जानें कि तू उपवास कर रहा है। बल्कि तेरा परम-पिता जिसे तू देख नहीं सकता, देखे कि तू उपवास कर रहा है। तब तेरा परम पिता जो तेरे छिपकर किए गए सब कर्मों को देखता है, तुझे उनका प्रतिफल देगा।
परमेश्वर धन से बड़ा है
19 “अपने लिये धरती पर भंडार मत भरो। क्योंकि उसे कीड़े और जंग नष्ट कर देंगे। चोर सेंध लगाकर उसे चुरा सकते हैं। 20 बल्कि अपने लिये स्वर्ग में भण्डार भरो जहाँ उसे कीड़े या जंग नष्ट नहीं कर पाते। और चोर भी वहाँ सेंध लगा कर उसे चुरा नहीं पाते। 21 याद रखो जहाँ तुम्हारा भंडार होगा वहीं तुम्हारा मन भी रहेगा।
22 “शरीर के लिये प्रकाश का स्रोत आँख है। इसलिये यदि तेरी आँख ठीक है तो तेरा सारा शरीर प्रकाशवान रहेगा। 23 किन्तु यदि तेरी आँख बुरी हो जाए तो तेरा सारा शरीर अंधेरे से भर जायेगा। इसलिये वह एकमात्र प्रकाश जो तेरे भीतर है यदि अंधकारमय हो जाये तो वह अंधेरा कितना गहरा होगा।
24 “कोई भी एक साथ दो स्वामियों का सेवक नहीं हो सकता क्योंकि वह एक से घृणा करेगा और दूसरे से प्रेम। या एक के प्रति समर्पित रहेगा और दूसरे का तिरस्कार करेगा। तुम धन और परमेश्वर दोनों की एक साथ सेवा नहीं कर सकते।
चिंता छोड़ो
25 “मैं तुमसे कहता हूँ अपने जीने के लिये खाने-पीने की चिंता छोड़ दो। अपने शरीर के लिये वस्त्रों की चिंता छोड़ दो। निश्चय ही जीवन भोजन से और शरीर कपड़ों से अधिक महत्वपूर्ण हैं। 26 देखो! आकाश के पक्षी न तो बुआई करते हैं और न कटाई, न ही वे कोठारों में अनाज भरते हैं किन्तु तुम्हारा स्वर्गीय पिता उनका भी पेट भरता है। क्या तुम उनसे कहीं अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो? 27 तुम में से क्या कोई ऐसा है जो चिंता करके अपने जीवन काल में एक घड़ी भी और बढ़ा सकता है?
28 “और तुम अपने वस्त्रों की क्यों सोचते हो? सोचो जंगल के फूलों की वे कैसे खिलते हैं। वे न कोई काम करते हैं और न अपने लिए कपड़े बनाते हैं। 29 मैं तुमसे कहता हूँ कि सुलेमान भी अपने सारे वैभव के साथ उनमें से किसी एक के समान भी नहीं सज सका। 30 इसलिये जब जंगली पौधों को जो आज जीवित हैं पर जिन्हें कल ही भाड़ में झोंक दिया जाना है, परमेश्वर ऐसे वस्त्र पहनाता है तो अरे ओ कम विश्वास रखने वालों, क्या वह तुम्हें और अधिक वस्त्र नहीं पहनायेगा?
31 “इसलिये चिंता करते हुए यह मत कहो कि ‘हम क्या खायेंगे या हम क्या पीयेंगे या क्या पहनेंगे?’ 32 विधर्मी लोग इन सब वस्तुओं के पीछे दौड़ते रहते हैं किन्तु स्वर्ग धाम में रहने वाला तुम्हारा पिता जानता है कि तुम्हें इन सब वस्तुओं की आवश्यकता है। 33 इसलिये सबसे पहले परमेश्वर के राज्य और तुमसे जो धर्म भावना वह चाहता है, उसकी चिंता करो। तो ये सब वस्तुएँ तुम्हें दे दी जायेंगी। 34 कल की चिंता मत करो, क्योंकि कल की तो अपनी और चिंताएँ होंगी। हर दिन की अपनी ही परेशानियाँ होती हैं।
यीशु का वचन: दूसरों को दोषी ठहराने के प्रति
7 “दूसरों पर दोष लगाने की आदत मत डालो ताकि तुम पर भी दोष न लगाया जाये। 2 क्योंकि तुम्हारा न्याय उसी फैसले के आधार पर होगा, जो फैसला तुमने दूसरों का न्याय करते हुए दिया था। और परमेश्वर तुम्हें उसी नाप से नापेगा जिससे तुमने दूसरों को नापा है।
3 “तू अपने भाई बंदों की आँख का तिनका तक क्यों देखता है? जबकि तुझे अपनी आँख का लट्ठा भी दिखाई नहीं देता। 4 जब तेरी अपनी आँख में लट्ठा समाया है तो तू अपने भाई से कैसे कह सकता है कि तू मुझे तेरी आँख का तिनका निकालने दे। 5 ओ कपटी! पहले तू अपनी आँख से लट्ठा निकाल, फिर तू ठीक तरह से देख पायेगा और अपने भाई की आँख का तिनका निकाल पायेगा।
6 “कुत्तों को पवित्र वस्तु मत दो। और सुअरों के आगे अपने मोती मत बिखेरो। नहीं तो वे सुअर उन्हें पैरों तले रौंद डालेंगे। और कुत्ते पलट कर तुम्हारी भी धज्जियाँ उड़ा देंगे।
जो कुछ चाहते हो, उसके लिये परमेश्वर से प्रार्थना करते रहो
7 “परमेश्वर से माँगते रहो, तुम्हें दिया जायेगा। खोजते रहो तुम्हें प्राप्त होगा खटखटाते रहो तुम्हारे लिए द्वार खोल दिया जायेगा। 8 क्योंकि हर कोई जो माँगता ही रहता है, प्राप्त करता है। जो खोजता है पा जाता है और जो खटखटाता ही रहता है उसके लिए द्वार खोल दिया जाएगा।
9 “तुम में से ऐसा पिता कौन सा है जिसका पुत्र उससे रोटी माँगे और वह उसे पत्थर दे? 10 या जब वह उससे मछली माँगे तो वह उसे साँप दे दे। बताओ क्या कोई देगा? ऐसा कोई नहीं करेगा। 11 इसलिये यदि चाहे तुम बुरे ही क्यों न हो, जानते हो कि अपने बच्चों को अच्छे उपहार कैसे दिये जाते हैं। सो निश्चय ही स्वर्ग में स्थित तुम्हारा परम-पिता माँगने वालों को अच्छी वस्तुएँ देगा।
व्यवस्था की सबसे बड़ी शिक्षा
12 “इसलिये जैसा व्यवहार अपने लिये तुम दूसरे लोगों से चाहते हो, वैसा ही व्यवहार तुम भी उनके साथ करो। व्यवस्था के विधि और भविष्यवक्ताओं के लिखे का यही सार है।
स्वर्ग और नरक का मार्ग
13 “सूक्ष्म मार्ग से प्रवेश करो। यह मैं तुम्हें इसलिये बता रहा हूँ क्योंकि चौड़ा द्वार और बड़ा मार्ग तो विनाश की ओर ले जाता है। बहुत से लोग हैं जो उस पर चल रहे हैं। 14 किन्तु कितना सँकरा है वह द्वार और कितनी सीमित है वह राह जो जीवन की ओर जाती है। बहुत थोड़े से हैं वे लोग जो उसे पा रहे हैं।
कर्म ही बताते हैं कि कौन कैसा है
15 “झूठे भविष्यवक्ताओं से बचो! वे तुम्हारे पास सरल भेड़ों के रूप में आते हैं किन्तु भीतर से वे खूँखार भेड़िये होते हैं। 16 तुम उन्हें उन के कर्मो के परिणामों से पहचानोगे। कोई कँटीली झाड़ी से न तो अंगूर इकट्ठे कर पाता है और न ही गोखरु से अंजीर। 17 ऐसे ही अच्छे पेड़ पर अच्छे फल लगते हैं किन्तु बुरे पेड़ पर तो बुरे फल ही लगते हैं। 18 एक उत्तम वृक्ष बुरे फल नहीं उपजाता और न ही कोई बुरा पेड़ उत्तम फल पैदा कर सकता है। 19 हर वह पेड़ जिस पर अच्छे फल नहीं लगते हैं, काट कर आग में झोंक दिया जाता है। 20 इसलिए मैं तुम लोगों से फिर दोहरा कर कहता हूँ कि उन लोगों को तुम उनके कर्मों के परिणामों से पहचानोगे।
21 “प्रभु-प्रभु कहने वाला हर व्यक्ति स्वर्ग के राज्य में नहीं जा पायेगा बल्कि वह जो स्वर्ग में स्थित मेरे परम पिता की इच्छा पर चलता है, वही उसमें प्रवेश पायेगा। 22 उस महान दिन बहुत से मुझसे पूछेंगे ‘प्रभु! हे प्रभु! क्या हमने तेरे नाम से भविष्यवाणी नहीं की? क्या तेरे नाम से हमने दुष्टात्माएँ नहीं निकालीं और क्या हमने तेरे नाम से बहुत से आश्चर्य कर्म नहीं किये?’ 23 तब मैं उनसे खुल कर कहूँगा कि मैं तुम्हें नहीं जानता, ‘अरे कुकर्मियों, यहाँ से भाग जाओ।’
एक बुद्धिमान और एक मूर्ख
24 “इसलिये जो कोई भी मेरे इन शब्दों को सुनता है और इन पर चलता है उसकी तुलना उस बुद्धिमान मनुष्य से होगी जिसने अपना मकान चट्टान पर बनाया, 25 वर्षा हुई, बाढ़ आयी, आँधियाँ चलीं और यह सब उस मकान से टकराये पर वह गिरा नहीं। क्योंकि उसकी नींव चट्टान पर रखी गयी थी।
26 “किन्तु वह जो मेरे शब्दों को सुनता है पर उन पर आचरण नहीं करता, उस मूर्ख मनुष्य के समान है जिसने अपना घर रेत पर बनाया। 27 वर्षा हुई, बाढ़ आयी, आँधियाँ चलीं और उस मकान से टकराईं, जिससे वह मकान पूरी तरह ढह गया।”
28 परिणाम यह हुआ कि जब यीशु ने ये बातें कह कर पूरी कीं, तो उसके उपदेशों पर लोगों की भीड़ को बड़ा अचरज हुआ। 29 क्योंकि वह उन्हें यहूदी धर्म नेताओं के समान नहीं बल्कि एक अधिकारी के समान शिक्षा दे रहा था।
जॉन अध्याय 13-16
यीशु का अपने शिष्यों के पैर धोना
13 फ़सह पर्व से पहले यीशु ने देखा कि इस जगत को छोड़ने और परम पिता के पास जाने का उसका समय आ पहुँचा है तो इस जगत में जो उसके अपने थे और जिन्हें वह प्रेम करता था, उन पर उसने चरम सीमा का प्रेम दिखाया।
2 शाम का खाना चल रहा था। शैतान अब तक शमौन इस्करियोती के पुत्र यहूदा के मन में यह डाल चुका था कि वह यीशु को धोखे से पकड़वाएगा। 3 यीशु यह जानता था कि परम पिता ने सब कुछ उसके हाथों सौंप दिया है और वह परमेश्वर से आया है, और परमेश्वर के पास ही वापस जा रहा है। 4 इसलिये वह खाना छोड़ कर खड़ा हो गया। उसने अपने बाहरी वस्त्र उतार दिये और एक अँगोछा अपने चारों ओर लपेट लिया। 5 फिर एक घड़े में जल भरा और अपने शिष्यों के पैर धोने लगा और उस अँगोछे से जो उसने लपेटा हुआ था, उनके पाँव पोंछने लगा।
6 फिर जब वह शमौन पतरस के पास पहुँचा तो पतरस ने उससे कहा, “प्रभु, क्या तू मेरे पाँव धो रहा है।”
7 उत्तर में यीशु ने उससे कहा, “अभी तू नहीं जानता कि मैं क्या कर रहा हूँ पर बाद में जान जायेगा।”
8 पतरस ने उससे कहा, “तू मेरे पाँव कभी भी नहीं धोयेगा।”
यीशु ने उत्तर दिया, “यदि मैं न धोऊँ तो तू मेरे पास स्थान नहीं पा सकेगा।”
9 शमौन पतरस ने उससे कहा, “प्रभु, केवल मेरे पैर ही नहीं, बल्कि मेरे हाथ और मेरा सिर भी धो दे।”
10 यीशु ने उससे कहा, “जो नहा चुका है उसे अपने पैरों के सिवा कुछ भी और धोने की आवश्यकता नहीं है। बल्कि पूरी तरह शुद्ध होता है। तुम लोग शुद्ध हो पर सबके सब नहीं।” 11 वह उसे जानता था जो उसे धोखे से पकड़वाने वाला है। इसलिए उसने कहा था, “तुम में से सभी शुद्ध नहीं हैं।”
12 जब वह उनके पाँव धो चुका तो उसने अपने बाहरी वस्त्र फिर पहन लिये और वापस अपने स्थान पर आकर बैठ गया। और उनसे बोला, “क्या तुम जानते हो कि मैंने तुम्हारे लिये क्या किया है? 13 तुम लोग मुझे ‘गुरु’ और ‘प्रभु’ कहते हो। और तुम उचित हो। क्योंकि मैं वही हूँ। 14 इसलिये यदि मैंने प्रभु और गुरु होकर भी जब तुम्हारे पैर धोये हैं तो तुम्हें भी एक दूसरे के पैर धोना चाहिये। मैंने तुम्हारे सामने एक उदाहरण रखा है 15 ताकि तुम दूसरों के साथ वही कर सको जो मैंने तुम्हारे साथ किया है। 16 मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ एक दास स्वामी से बड़ा नहीं है और न ही एक संदेशवाहक उससे बड़ा है जो उसे भेजता है। 17 यदि तुम लोग इन बातों को जानते हो और उन पर चलते हो तो तुम सुखी होगे।
18 “मैं तुम सब के बारे में नहीं कह रहा हूँ। मैं उन्हें जानता हूँ जिन्हें मैंने चुना है (और यह भी कि यहूदा विश्वासघाती है) किन्तु मैंने उसे इसलिये चुना है ताकि शास्त्र का यह वचन सत्य हो, ‘वही जिसने मेरी रोटी खायी मेरे विरोध में हो गया।’ 19 अब यह घटित होने से पहले ही मैं तुम्हें इसलिये बता रहा हूँ कि जब यह घटित हो तब तुम विश्वास करो कि वह मैं हूँ। 20 मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ कि वह जो किसी भी मेरे भेजे हुए को ग्रहण करता है, मुझको ग्रहण करता है। और जो मुझे ग्रहण करता है, उसे ग्रहण करता है जिसने मुझे भेजा है।”
यीशु का कथन: मरवाने के लिये उसे कौन पकड़वायेगा
21 यह कहने के बाद यीशु बहुत व्याकुल हुआ और साक्षी दी, “मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, तुम में से एक मुझे धोखा देकर पकड़वायेगा।”
22 तब उसके शिष्य एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे। वे निश्चय ही नहीं कर पा रहे थे कि वह किसके बारे में कह रहा है। 23 उसका एक शिष्य यीशु के निकट ही बैठा हुआ था। इसे यीशु बहुत प्यार करता था। 24 तब शमौन पतरस ने उसे इशारा किया कि पूछे वह कौन हो सकता है जिस के विषय में यीशु बता रहा था।
25 यीशु के प्रिय शिष्य ने सहज में ही उसकी छाती पर झुक कर उससे पूछा, “हे प्रभु, वह कौन है?”
26 यीशु ने उत्तर दिया, “रोटी का टुकड़ा कटोरे में डुबो कर जिसे मैं दूँगा, वही वह है।” फिर यीशु ने रोटी का टुकड़ा कटोरे में डुबोया और उसे उठा कर शमौन इस्करियोती के पुत्र यहूदा को दिया। 27 जैसे ही यहूदा ने रोटी का टुकड़ा लिया उसमें शैतान समा गया। फिर यीशु ने उससे कहा, “जो तू करने जा रहा है, उसे तुरन्त कर।” 28 किन्तु वहाँ बैठे हुओं में से किसी ने भी यह नहीं समझा कि यीशु ने उससे यह बात क्यों कही। 29 कुछ ने सोचा कि रुपयों की थैली यहूदा के पास रहती है इसलिए यीशु उससे कह रहा है कि पर्व के लिये आवश्यक सामग्री मोल ले आओ या कह रहा है कि गरीबों को वह कुछ दे दे।
30 इसलिए यहूदा ने रोटी का टुकड़ा लिया। और तत्काल चला गया। यह रात का समय था।
अपनी मृत्यु के विषय में यीशु का वचन
31 उसके चले जाने के बाद यीशु ने कहा, “मनुष्य का पुत्र अब महिमावान हुआ है। और उसके द्वारा परमेश्वर की महिमा हुई है। 32 यदि उसके द्वारा परमेश्वर की महिमा हुई है तो परमेश्वर अपने द्वारा उसे महिमावान करेगा। और वह उसे महिमा शीघ्र ही देगा।”
33 “हे मेरे प्यारे बच्चों, मैं अब थोड़ी ही देर और तुम्हारे साथ हूँ। तुम मुझे ढूँढोगे और जैसा कि मैंने यहूदी नेताओं से कहा था, तुम वहाँ नहीं आ सकते, जहाँ मैं जा रहा हूँ, वैसा ही अब मैं तुमसे कहता हूँ।
34 “मैं तुम्हें एक नयी आज्ञा देता हूँ कि तुम एक दूसरे से प्रेम करो। जैसा मैंने तुमसे प्यार किया है वैसे ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम करो। 35 यदि तुम एक दूसरे से प्रेम रखोगे तभी हर कोई यह जान पायेगा कि तुम मेरे अनुयायी हो।”
यीशु का वचन-पतरस उसे पहचानने से इन्कार करेगा
36 शमौन पतरस ने उससे पूछा, “हे प्रभु, तू कहाँ जा रहा है?”
यीशु ने उसे उत्तर दिया, “तू अब मेरे पीछे नहीं आ सकता। पर तू बाद में मेरे पीछे आयेगा।”
37 पतरस ने उससे पूछा, “हे प्रभु, अभी भी मैं तेरे पीछे क्यों नहीं आ सकता? मैं तो तेरे लिये अपने प्राण तक त्याग दूँगा।”
38 यीशु ने उत्तर दिया, “क्या? तू अपना प्राण त्यागेगा? मैं तुझे सत्य कहता हूँ कि जब तक तू तीन बार इन्कार नहीं कर लेगा तब तक मुर्गा बाँग नहीं देगा।”
यीशु का शिष्यों को समझाना
14 “तुम्हारे हृदय दुःखी नहीं होने चाहिये। परमेश्वर में विश्वास रखो और मुझमें भी विश्वास बनाये रखो। 2 मेरे परम पिता के घर में बहुत से कमरे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो मैं तुमसे कह देता। मैं तुम्हारे लिए स्थान बनाने जा रहा हूँ। 3 और यदि मैं वहाँ जाऊँ और तुम्हारे लिए स्थान तैयार करूँ तो मैं फिर यहाँ आऊँगा और अपने साथ तुम्हें भी वहाँ ले चलूँगा ताकि तुम भी वहीं रहो जहाँ मैं हूँ। 4 और जहाँ मैं जा रहा हूँ तुम वहाँ का रास्ता जानते हो।”
5 थोमा ने उससे कहा, “हे प्रभु, हम नहीं जानते तू कहाँ जा रहा है। फिर वहाँ का रास्ता कैसे जान सकते हैं?”
6 यीशु ने उससे कहा, “मैं ही मार्ग हूँ, सत्य हूँ और जीवन हूँ। बिना मेरे द्वारा कोई भी परम पिता के पास नहीं आता। 7 यदि तूने मुझे जान लिया होता तो तू परम पिता को भी जानता। अब तू उसे जानता है और उसे देख भी चुका है।”
8 फिलिप्पुस ने उससे कहा, “हे प्रभु, हमे परम पिता का दर्शन करा दे। हमें संतोष हो जायेगा।”
9 यीशु ने उससे कहा, “फिलिप्पुस मैं इतने लम्बे समय से तेरे साथ हूँ और अब भी तू मुझे नहीं जानता? जिसने मुझे देखा है, उसने परम पिता को देख लिया है। फिर तू कैसे कहता है ‘हमें परम पिता का दर्शन करा दे।’ 10 क्या तुझे विश्वास नहीं है कि मैं परम पिता में हूँ और परम पिता मुझमें है? वे वचन जो मैं तुम लोगों से कहता हूँ, अपनी ओर से ही नहीं कहता। परम पिता जो मुझमें निवास करता है, अपना काम करता है। 11 जब मैं कहता हूँ कि मैं परम पिता में हूँ और परम पिता मुझमें है तो मेरा विश्वास करो और यदि नहीं तो स्वयं कामों के कारण ही विश्वास करो।
12 “मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ, जो मुझमें विश्वास करता है, वह भी उन कार्यों को करेगा जिन्हें मैं करता हूँ। वास्तव में वह इन कामों से भी बड़े काम करेगा। क्योंकि मैं परम पिता के पास जा रहा हूँ। 13 और मैं वह सब कुछ करूँगा जो तुम लोग मेरे नाम से माँगोगे जिससे पुत्र के द्वारा परम पिता महिमावान हो। 14 यदि तुम मुझसे मेरे नाम में कुछ माँगोगे तो मैं उसे करूँगा।
पवित्र आत्मा की प्रतिज्ञा
15 “यदि तुम मुझे प्रेम करते हो, तो मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे। 16 मैं परम पिता से विनती करूँगा और वह तुम्हें एक दूसरा सहायक[a] देगा ताकि वह सदा तुम्हारे साथ रह सके। 17 यानी सत्य का आत्मा[b] जिसे जगत ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि वह उसे न तो देखता है और न ही उसे जानता है। तुम लोग उसे जानते हो क्योंकि वह आज तुम्हारे साथ रहता है और भविष्य में तुम में रहेगा।
18 “मैं तुम्हें अनाथ नहीं छोड़ूँगा। मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ। 19 कुछ ही समय बाद जगत मुझे और नहीं देखेगा किन्तु तुम मुझे देखोगे क्योंकि मैं जीवित हूँ और तुम भी जीवित रहोगे। 20 उस दिन तुम जानोगे कि मैं परम पिता में हूँ, तुम मुझ में हो और मैं तुझमें। 21 वह जो मेरे आदेशों को स्वीकार करता है और उनका पालन करता है, मुझसे प्रेम करता है। जो मुझमें प्रेम रखता है उसे मेरा परम पिता प्रेम करेगा। मैं भी उसे प्रेम करूँगा और अपने आप को उस पर प्रकट करूँगा।”
22 यहूदा ने (यहूदा इस्करियोती ने नहीं) उससे कहा, “हे प्रभु, ऐसा क्यों है कि तू अपने आपको हम पर प्रकट करना चाहता है और जगत पर नहीं?”
23 उत्तर में यीशु ने उससे कहा, “यदि कोई मुझमें प्रेम रखता है तो वह मेरे वचन का पालन करेगा। और उससे मेरा परम पिता प्रेम करेगा। और हम उसके पास आयेंगे और उसके साथ निवास करेंगे। 24 जो मुझमें प्रेम नहीं रखता, वह मेरे उपदेशों पर नहीं चलता। यह उपदेश जिसे तुम सुन रहे हो, मेरा नहीं है, बल्कि उस परम पिता का है जिसने मुझे भेजा है।
25 “ये बातें मैंने तुमसे तभी कही थीं जब मैं तुम्हारे साथ था। 26 किन्तु सहायक अर्थात् पवित्र आत्मा जिसे परम पिता मेरे नाम से भेजेगा, तुम्हें सब कुछ बतायेगा। और जो कुछ मैंने तुमसे कहा है उसे तुम्हें याद दिलायेगा।
27 “मैं तुम्हारे लिये अपनी शांति छोड़ रहा हूँ। मैं तुम्हें स्वयं अपनी शांति दे रहा हूँ पर तुम्हें इसे मैं वैसे नहीं दे रहा हूँ जैसे जगत देता है। तुम्हारा मन व्याकुल नहीं होना चाहिये और न ही उसे डरना चाहिये। 28 तुमने मुझे कहते सुना है कि मैं जा रहा हूँ और तुम्हारे पास फिर आऊँगा। यदि तुमने मुझसे प्रेम किया होता तो तुम प्रसन्न होते क्योंकि मैं परम पिता के पास जा रहा हूँ। क्योंकि परम पिता मुझ से महान है। 29 और अब यह घटित होने से पहले ही मैंने तुम्हें बता दिया है ताकि जब यह घटित हो तो तुम्हें विश्वास हो।
30 “और मैं अधिक समय तक तुम्हारे साथ बात नहीं करूँगा क्योंकि इस जगत का शासक आ रहा है। मुझ पर उसका कोई बस नहीं चलता। किन्तु ये बातें इसलिए घट रहीं हैं ताकि जगत जान जाये कि मैं परम पिता से प्रेम करता हूँ। 31 और पिता ने जैसी आज्ञा मुझे दी है, मैं वैसा ही करता हूँ।
“अब उठो, हम यहाँ से चलें।”
यीशु-सच्ची दाखलता
15 यीशु ने कहा, “सच्ची दाखलता मैं हूँ। और मेरा परम पिता देख-रेख करने वाला माली है। 2 मेरी हर उस शाखा को जिस पर फल नहीं लगता, वह काट देता है। और हर उस शाखा को जो फलती है, वह छाँटता है ताकि उस पर और अधिक फल लगें। 3 तुम लोग तो जो उपदेश मैंने तुम्हें दिया है, उसके कारण पहले ही शुद्ध हो। 4 तुम मुझमें रहो और मैं तुममें रहूँगा। वैसे ही जैसे कोई शाखा जब तक दाखलता में बनी नहीं रहती, तब तक अपने आप फल नहीं सकती वैसे ही तुम भी तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक मुझमें नहीं रहते।
5 “वह दाखलता मैं हूँ और तुम उसकी शाखाएँ हो। जो मुझमें रहता है, और मैं जिसमें रहता हूँ वह बहुत फलता है क्योंकि मेरे बिना तुम कुछ भी नहीं कर सकते। 6 यदि कोई मुझमें नहीं रहता तो वह टूटी शाखा की तरह फेंक दिया जाता है और सूख जाता है। फिर उन्हें बटोर कर आग में झोंक दिया जाता है और उन्हें जला दिया जाता है। 7 यदि तुम मुझमें रहो, और मेरे उपदेश तुम में रहें, तो जो कुछ तुम चाहते हो माँगो, वह तुम्हें मिलेगा। 8 इससे मेरे परम पिता की महिमा होती है कि तुम बहुत सफल होवो और मेरे अनुयायी रहो।
9 “जैसे परम पिता ने मुझे प्रेम किया है, मैंने भी तुम्हें वैसे ही प्रेम किया है। मेरे प्रेम में बने रहो। 10 यदि तुम मेरे आदेशों का पालन करोगे तो तुम मेरे प्रेम में बने रहोगे। वैसे ही जैसे मैं अपने परम पिता के आदेशों को पालते हुए उसके प्रेम में बना रहता हूँ। 11 मैंने ये बातें तुमसे इसलिये कहीं हैं कि मेरा आनन्द तुम में रहे और तुम्हारा आनन्द परिपूर्ण हो जाये। यह मेरा आदेश है 12 कि तुम आपस में प्रेम करो, वैसे ही जैसे मैंने तुम से प्रेम किया है। 13 बड़े से बड़ा प्रेम जिसे कोई व्यक्ति कर सकता है, वह है अपने मित्रों के लिए प्राण न्योछावर कर देना। 14 जो आदेश तुम्हें मैं देता हूँ, यदि तुम उन पर चलते रहो तो तुम मेरे मित्र हो। 15 अब से मैं तुम्हें दास नहीं कहूँगा क्योंकि कोई दास नहीं जानता कि उसका स्वामी क्या कर रहा है बल्कि मैं तुम्हें मित्र कहता हूँ। क्योंकि मैंने तुम्हें वह हर बात बता दी है, जो मैंने अपने परम पिता से सुनी है।
16 “तुमने मुझे नहीं चुना, बल्कि मैंने तुम्हें चुना है और नियत किया है कि तुम जाओ और सफल बनो। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी सफलता बनी रहे ताकि मेरे नाम में जो कुछ तुम चाहो, परम पिता तुम्हें दे। 17 मैं तुम्हें यह आदेश दे रहा हूँ कि तुम एक दूसरे से प्रेम करो।
यीशु की चेतावनी
18 “यदि संसार तुमसे बैर करता है तो याद रखो वह तुमसे पहले मुझसे बैर करता है। 19 यदि तुम जगत के होते तो जगत तुम्हें अपनों की तरह प्यार करता पर तुम जगत के नहीं हो मैंने तुम्हें जगत में से चुन लिया है और इसीलिए जगत तुमसे बैर करता है।
20 “मेरा वचन याद रखो एक दास अपने स्वामी से बड़ा नहीं है। इसीलिये यदि उन्होंने मुझे यातनाएँ दी हैं तो वे तुम्हें भी यातनाएँ देंगे। और यदि उन्होंने मेरा वचन माना तो वे तुम्हारा वचन भी मानेंगे। 21 पर वे मेरे कारण तुम्हारे साथ ये सब कुछ करेंगे क्योंकि वे उसे नहीं जानते जिसने मुझे भेजा है। 22 यदि मैं न आता और उनसे बातें न करता तो वे किसी भी पाप के दोषी न होते। पर अब अपने पाप के लिए उनके पास कोई बहाना नहीं है।
23 “जो मुझसे बैर करता है वह परम पिता से बैर करता है। 24 यदि मैं उनके बीच वे कार्य नहीं करता जो कभी किसी ने नहीं किये तो वे पाप के दोषी न होते पर अब जब वे देख चुके हैं तब भी मुझसे और मेरे परम पिता दोनों से बैर रखते हैं। 25 किन्तु यह इसलिये हुआ कि उनके व्यवस्था-विधान में जो लिखा है वह सच हो सके: ‘उन्होंने बेकार ही मुझसे बैर किया है।’
26 “जब वह सहायक (जो सत्य की आत्मा है और परम पिता की ओर से आता है) तुम्हारे पास आयेगा जिसे मैं परम पिता की ओर से भेजूँगा, वह मेरी ओर से साक्षी देगा। 27 और तुम भी साक्षी दोगे क्योंकि तुम आदि से ही मेरे साथ रहे हो।
16 “ये बातें मैंने इसलिये तुमसे कही हैं कि तुम्हारा विश्वास न डगमगा जाये। 2 वे तुम्हें आराधनालयों से निकाल देंगे। वास्तव में वह समय आ रहा है जब तुम में से किसी को भी मार कर हर कोई सोचेगा कि वह परमेश्वर की सेवा कर रहा है। 3 वे ऐसा इसलिए करेंगे कि वे न तो परम पिता को जानते हैं और न ही मुझे। 4 किन्तु मैंने तुमसे यह इसलिये कहा है ताकि जब उनका समय आये तो तुम्हें याद रहे कि मैंने उनके विषय में तुमको बता दिया था।
पवित्र आत्मा के कार्य
“आरम्भ में ये बातें मैंने तुम्हें नहीं बतायी थीं क्योंकि मैं तुम्हारे साथ था। 5 किन्तु अब मैं उसके पास जा रहा हूँ जिसने मुझे भेजा है और तुममें से मुझ से कोई नहीं पूछेगा, ‘तू कहाँ जा रहा है?’ 6 क्योंकि मैंने तुम्हें ये बातें बता दी हैं, तुम्हारे हृदय शोक से भर गये हैं। 7 किन्तु मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ इसमें तुम्हारा भला है कि मैं जा रहा हूँ। क्योंकि यदि मैं न जाऊँ तो सहायक तुम्हारे पास नहीं आयेगा। किन्तु यदि मैं चला जाता हूँ तो मैं उसे तुम्हारे पास भेज दूँगा।
8 “और जब वह आयेगा तो पाप, धार्मिकता और न्याय के विषय में जगत के संदेह दूर करेगा। 9 पाप के विषय में इसलिये कि वे मुझ में विश्वास नहीं रखते, 10 धार्मिकता के विषय में इसलिये कि अब मैं परम पिता के पास जा रहा हूँ। और तुम मुझे अब और अधिक नहीं देखोगे। 11 न्याय के विषय में इसलिये कि इस जगत के शासक को दोषी ठहराया जा चुका है।
12 “मुझे अभी तुमसे बहुत सी बातें कहनी हैं किन्तु तुम अभी उन्हें सह नहीं सकते। 13 किन्तु जब सत्य का आत्मा आयेगा तो वह तुम्हें पूर्ण सत्य की राह दिखायेगा क्योंकि वह अपनी ओर से कुछ नहीं कहेगा। वह जो कुछ सुनेगा वही बतायेगा। और जो कुछ होने वाला है उसको प्रकट करेगा। 14 वह मेरी महिमा करेगा क्योंकि जो मेरा है उसे लेकर वह तुम्हें बतायेगा। हर वस्तु जो पिता की है, वह मेरी है। 15 इसीलिए मैंने कहा है कि जो कुछ मेरा है वह उसे लेगा और तुम्हें बतायेगा।
शोक आनन्द में बदल जायेगा
16 “कुछ ही समय बाद तुम मुझे और अधिक नहीं देख पाओगे। और थोड़े समय बाद तुम मुझे फिर देखोगे।”
17 तब उसके कुछ शिष्यों ने आपस में कहा, “यह क्या है जो वह हमें बता रहा है, ‘थोड़ी देर बाद तुम मुझे नहीं देख पाओगे’ और ‘थोड़े समय बाद तुम मुझे फिर देखोगे?’ और ‘मैं परम पिता के पास जा रहा हूँ।’” 18 फिर वे कहने लगे, “यह ‘थोड़ी देर बाद’ क्या है? जिसके बारे में वह बता रहा है। वह क्या कह रहा है हम समझ नहीं रहे हैं।”
19 यीशु समझ गया कि वे उससे प्रश्न करना चाहते हैं। इसलिये उसने उनसे कहा, “क्या तुम मैंने यह जो कहा है, उस पर आपस में सोच-विचार कर रहे हो, ‘कुछ ही समय बाद तुम मुझे और अधिक नही देख पाओगे।’ और ‘फिर थोड़े समय बाद तुम मुझे देखोगे?’ 20 मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ, तुम विलाप करोगे और रोओगे किन्तु यह जगत प्रसन्न होगा। तुम्हें शोक होगा किन्तु तुम्हारा शोक आनन्द में बदल जायेगा।
21 “जब कोई स्त्री जनने लगती है, तब उसे पीड़ा होती है क्योंकि उसकी पीड़ा की घड़ी आ चुकी होती है। किन्तु जब वह बच्चा जन चुकी होती है तो इस आनन्द से कि एक व्यक्ति इस संसार में पैदा हुआ है वह आनन्दित होती है और अपनी पीड़ा को भूल जाती है। 22 सो तुम सब भी इस समय वैसे ही दुःखी हो किन्तु मैं तुमसे फिर मिलूँगा और तुम्हारे हृदय आनन्दित होंगे। और तुम्हारे आनन्द को तुमसे कोई छीन नहीं सकेगा। 23 उस दिन तुम मुझसे कोई प्रश्न नहीं पूछोगे। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ मेरे नाम में परम पिता से तुम जो कुछ भी माँगोगे वह उसे तुम्हें देगा। 24 अब तक मेरे नाम में तुमने कुछ नहीं माँगा है। माँगो, तुम पाओगे। ताकि तुम्हें भरपूर आनन्द हो।
जगत पर विजय
25 “मैंने ये बातें तुम्हें दृष्टान्त देकर बतायी हैं। वह समय आ रहा है जब मैं तुमसे दृष्टान्त दे-देकर और अधिक समय बात नहीं करूँगा। बल्कि परम पिता के विषय में खोल कर तुम्हें बताऊँगा। 26 उस दिन तुम मेरे नाम में माँगोगे और मैं तुमसे यह नहीं कहता कि तुम्हारी ओर से मैं परम पिता से प्रार्थना करूँगा। 27 परम पिता स्वयं तुम्हें प्यार करता है क्योंकि तुमने मुझे प्यार किया है। और यह माना है कि मैं परम पिता से आया हूँ। 28 मैं परम पिता से प्रकट हुआ और इस जगत में आया। और अब मैं इस जगत को छोड़कर परम पिता के पास जा रहा हूँ।”
29 उसके शिष्यों ने कहा, “देख अब तू बिना किसी दृष्टान्त को खोल कर बता रहा है। 30 अब हम समझ गये हैं कि तू सब कुछ जानता है। अब तुझे अपेक्षा नहीं है कि कोई तुझसे प्रश्न पूछे। इससे हमें यह विश्वास होता है कि तू परमेश्वर से प्रकट हुआ है।”
31 यीशु ने इस पर उनसे कहा, “क्या तुम्हें अब विश्वास हुआ है? 32 सुनो, समय आ रहा है, बल्कि आ ही गया है जब तुम सब तितर-बितर हो जाओगे और तुम में से हर कोई अपने-अपने घर लौट जायेगा और मुझे अकेला छोड़ देगा किन्तु मैं अकेला नहीं हूँ क्योंकि मेरा परम पिता मेरे साथ है।
33 “मैंने ये बातें तुमसे इसलिये कहीं कि मेरे द्वारा तुम्हें शांति मिले। जगत में तुम्हें यातना मिली है किन्तु साहस रखो, मैंने जगत को जीत लिया है।”
स्वप्नदृष्टा यूसुफ
37 याकूब ठहर गया और कनान प्रदेश में रहने लगा। यह वही प्रदेश है जहाँ उसका पिता आकर बस गया था। 2 याकूब के परिवार की यही कथा है।
यूसुफ एक सत्रह वर्ष का युवक था। उसका काम भेड़ बकरियों की देखभाल करना था। यूसुफ यह काम अपने भाईयों यानि कि बिल्हा और जिल्पा के पुत्रों के साथ करता था। (बिल्हा और जिल्पा उस के पिता की पत्नियाँ थीं) 3 यूसुफ अपने पिता को अपने भाईयों की बुरी बातें बताया करता था। यूसुफ उस समय उत्पन्न हुआ जब उसका पिता इस्राएल (याकूब) बहुत बूढ़ा था। इसलिए इस्राएल यूसुफ को अपने अन्य पुत्रों से अधिक प्यार करता था। याकूब ने अपने पुत्र को एक विशेष अंगरखा दिया। यह अंगरखा लम्बा और बहुत सुन्दर था। 4 यूसुफ के भाइयों ने देखा कि उनका पिता उनकी अपेक्षा यूसुफ को अधिक प्यार करता है। वे इसी कारण अपने भाई से घृणा करते थे। वे यूसुफ से अच्छी तरह बात नहीं करते थे।
5 एक बार यूसुफ ने एक विशेष सपना देखा। बाद में यूसुफ ने अपने इस सपने के बारे में अपने भाईयों को बताया। इसके बाद उसके भाई पहले से भी अधिक उससे घृणा करने लगे।
6 यूसुफ ने कहा, “मैंने एक सपना देखा। 7 हम सभी खेत में काम कर रहे थे। हम लोग गेहूँ को एक साथ गट्ठे बाँध रहे थे। मेरा गट्ठा खड़ा हुआ और तुम लोगों के गट्ठों ने मेरे गट्ठे के चारों ओर घेरा बनाया। तब तुम्हारे सभी गट्ठों ने मेरे गट्ठे को झुक कर प्रणाम किया।”
8 उसके भाईयों ने कहा, “क्या, तुम सोचते हो कि इसका अर्थ है कि तुम राजा बनोगे और हम लोगों पर शासन करोगे?” उसके भाईयों ने यूसुफ से अब और अधिक घृणा करनी आरम्भ की क्योंकि उसने उनके बारे में सपना देखा था। 9 तब यूसुफ ने दूसरा सपना देखा। यूसुफ ने अपने भाईयों से इस सपने के बारे में बताया। यूसुफ ने कहा, “मैंने दूसरा सपना देखा है। मैंने सूरज, चाँद और ग्यारह नक्षत्रों को अपने को प्रणाम करते देखा।”
10 यूसुफ ने अपने पिता को भी इस सपने के बारे में बताया। किन्तु उसके पिता ने इसकी आलोचना की। उसके पिता ने कहा, “यह किस प्रकार का सपना है? क्या तुम्हें विश्वास है कि तुम्हारी माँ, तुम्हारे भाई और हम तुमको प्रणाम करेंगे?” 11 यूसुफ के भाई उससे लगातार इर्षा करते रहे। किन्तु यूसुफ के पिता ने इन सभी बातों के बारे में बहुत गहराई से विचार किया और सोचा कि उनका अर्थ क्या होगा?
12 एक दिन यूसुफ के भाई अपने पिता की भेड़ों की देखभाल के लिए शकेम गए। 13 याकूब ने यूसुफ से कहा, “शकेम जाओ। तुम्हारे भाई मेरी भेड़ों के साथ वहाँ हैं।” यूसुफ ने उत्तर दिया, “मैं जाऊँगा।”
14 यूसुफ के पिता ने कहा, “जाओ और देखो कि तुम्हारे भाई सुरक्षित हैं। लौटकर आओ और बताओ कि क्या मेरी भेड़ें ठीक हैं?” इस प्रकार यूसुफ के पिता ने उसे हेब्रोन की घाटी से शकेम को भेजा।
15 शकेम में यूसुफ खो गया। एक व्यक्ति ने उसे खेतों में भटकते हुए पाया। उस व्यक्ति ने कहा, “तुम क्या खोज रहे हो?”
16 यूसुफ ने उत्तर दिया, “मैं अपने भाईयों को खोज रहा हूँ। क्या तुम बता सकते हो कि वे अपनी भेड़ों के साथ कहाँ हैं?”
17 व्यक्ति ने उत्तर दिया, “वे पहले ही चले गए है। मैंने उन्हें कहते हुए सुना कि वे दोतान को जा रहे हैं।” इसलिए यूसुफ अपने भाईयों के पीछे गया और उसने उन्हें दोतान में पाया।
यूसुफ दासता के लिए बेचा गया
18 यूसुफ के भाईयों ने बहुत दूर से उसे आते देखा। उन्होंने उसे मार डालने की योजना बनाने का निश्चय किया। 19 भाईयों ने एक दूसरे से कहा, “यह सपना देखने वाला यूसुफ आ रहा है। 20 मौका मिले हम लोग उसे मार डालें हम उसका शरीर सूखे कुओं में से किसी एक में फेंक सकते हैं। हम अपने पिता से कह सकते हैं कि एक जंगली जानवर ने उसे मार डाला। तब हम लोग उसे दिखाएंगे कि उसके सपने व्यर्थ हैं।”
21 किन्तु रूबेन यूसुफ को बचाना चाहता था। रूबेन ने कहा, “हम लोग उसे मारे नहीं। 22 हम लोग उसे चोट पहुँचाए बिना एक कुएँ में डाल सकते हैं।” रूबेन ने यूसुफ को बचाने और उसके पिता के साथ भेजने की योजना बनाई। 23 यूसुफ अपने भाईयों के पास आया। उन्होंने उस पर आक्रमण किया और उसके लम्बे सुन्दर अंगरखा को फाड़ डाला। 24 तब उन्होंने उसे खाली सूखे कुएँ में फेंक दिया।
25 यूसुफ कुएँ में था, उसके भाई भोजन करने बैठे। तब उन्होंने नज़र उठाई और व्यापारियों का एक दल को देखा जो गिलाद से मिस्र की यात्रा पर थे। उनके ऊँट कई प्रकार के मसाले और धन ले जा रहे थे। 26 इसलिए यहूदा ने अपने भाईयों से कहा, अगर हम लोग अपने भाई को मार देंगे और उसकी मृत्यु को छिपाएंगे तो उससे हमें क्या लाभ होगा? 27 हम लोगों को अधिक लाभ तब होगा जब हम उसे इन व्यापारियों के हाथ बेच देंगे। अन्य भाई मान गए। 28 जब मिद्यानी व्यापारी पास आए, भाईयों ने यूसुफ को कुएँ से बाहर निकाला। उन्होंने बीस चाँदी के टुकड़ों में उसे व्यापारियों को बेच दिया। व्यापारी उसे मिस्र ले गए।
29 इस पूरे समय रूबेन भाईयों के साथ वहाँ नहीं था। वह नहीं जानता था कि उन्होंने यूसुफ को बेच दिया था। जब रूबेन कुएँ पर लौटकर आया तो उसने देखा कि यूसुफ वहाँ नहीं है। रूबेन बहुत अधिक दुःखी हुआ। उसने अपने कपड़ों को फाड़ा। 30 रूबेन भाईयों के पास गया और उसने उनसे कहा, “लड़का कुएँ पर नहीं है। मैं क्या करूँ?” 31 भाईयों ने एक बकरी को मारा और उसके खून को यूसुफ के सुन्दर अंगरखे पर डाला। 32 तब भाईयों ने उस अंगरखे को अपने पिता को दिखाया और भाईयों ने कहा, “हमे यह अंगरखा मिला है, क्या यह यूसुफ का अंगरखा है?”
33 पिता ने अंगरखे को देखा और पहचाना कि यह यूसुफ का है। पिता ने कहा, “हाँ, यह उसी का है। संभव है उसे किसी जंगली जानवर ने मार डाला हो। मेरे पुत्र यूसुफ को कोई जंगली जानवर खा गया।” 34 याकूब अपने पुत्र के लिए इतना दुःखी हुआ कि उसने अपने कपड़े फाड़ डाले। तब याकूब ने विशेष वस्त्र पहने जो उसके शोक के प्रतीक थे। याकूब लम्बे समय तक अपने पुत्र के शोक में पड़ा रहा। 35 याकूब के सभी पुत्रों, पुत्रियों ने उसे धीरज बँधाने का प्रयत्न किया। किन्तु याकूब कभी धीरज न धर सका। याकूब ने कहा, “मैं मरने के दिन तक अपने पुत्र यूसुफ के शोक में डूबा रहूँगा।”
36 उन मिद्यानी व्यापारियों ने जिन्होंने यूसुफ को खरीदा था, बाद में उसे मिस्र में बेच दिया। उन्होंने फिरौन के अंगरक्षकों के सेनापति पोतीपर के हाथ उसे बेचा।
यूसुफ मिस्री पोतीपर को बेचा गया
39 व्यापारी जिसने यूसुफ को खरीदा वह उसे मिस्र ले गए। उन्होंने फ़िरौन के अंगरक्षक के नायक के हाथ उसे बेचा। 2 किन्तु यहोवा ने यूसुफ की सहायता की। यूसुफ एक सफल व्यक्ति बन गया। यूसुफ अपने मिस्री स्वामी पोतीपर के घर में रहा।
3 पोतीपर ने देखा कि यहोवा यूसुफ के साथ है। पोतीपर ने यह भी देखा कि यहोवा जो कुछ यूसुफ करता है, उसमें उसे सफल बनाने में सहायक है। 4 इसलिए पोतीपर यूसुफ को पाकर बहुत प्रसन्न था। पोतीपर ने उसे अपने लिए काम करने तथा घर के प्रबन्ध में सहायता करने में लगाया। पोतीपर की अपनी हर एक चीज़ का यूसुफ अधिकारी था। 5 तब यूसुफ घर का अधिकारी बना दिया गया तब यहोवा ने उस घर और पोतीपर की हर एक चीज़ को आशीर्वाद दिया। यहोवा ने यह यूसुफ के कारण किया और यहोवा ने पोतीपर के खेतों में उगने वाली हर चीज़ को आशीर्वाद दिया। 6 इसलिए पोतीपर ने घर की हर चीज़ की जिम्मेदारी यूसुफ को दी। पोतीपर किसी चीज़ की चिन्ता नहीं करता था वह जो भोजन करता था एक मात्र उसकी उसे चिन्ता थी।
यूसुफ पोतीपर की पत्नी को मना करता है
यूसुफ बहुत सुन्दर और सुरूप था। 7 कुछ समय बाद यूसुफ के मालिक की पत्नी यूसुफ से प्रेम करने लगी। एक दिन उसने कहा, “मेरे साथ सोओ।”
8 किन्तु यूसुफ ने मना कर दिया। उसने कहा, “मेरा मालिक घर की अपनी हर चीज़ के लिए मुझ पर विश्वास करता है। उसने यहाँ की हर एक चीज़ की ज़िम्मेदारी मुझे दी है। 9 मेरे मालिक ने अपने घर में मुझे लगभग अपने बराबर मान दिया है। किन्तु मुझे उसकी पत्नी के साथ नहीं सोना चाहिए। यह अनुचित है। यह परमेश्वर के विरुद्ध पाप है।”
10 वह स्त्री हर दिन यूसुफ से बात करती थी किन्तु यूसुफ ने उसके साथ सोने से मना कर दिया। 11 एक दिन यूसुफ अपना काम करने घर में गया। उस समय वह घर में अकेला व्यक्ति था। 12 उसके मालिक की पत्नी ने उसका अंगरखा पकड़ा लिया और उससे कहा, “आओ और मेरे साथ सोओ।” किन्तु यूसुफ घर से बाहर भाग गया और उसने अपना अंगरखा उसके हाथ में छोड़ दिया।
13 स्त्री ने देखा कि यूसुफ ने अपना अंगरखा उसके हाथों में छोड़ दिया है और उसने जो कुछ हुआ उसके बारे में झूठ बोलने में निश्चय किया। वह बाहर दौड़ी। 14 और उसने बाहर के लोगों को पुकारा। उसने कहा, “देखो, यह हिब्रू दास हम लोगों का उपहास करने यहाँ आया था। वह अन्दर आया और मेरे साथ सोने की कोशिश की। किन्तु मैं ज़ोर से चिल्ला पड़ी। 15 मेरी चिल्लाहट ने उसे डरा दिया और वह भाग गया। किन्तु वह अपना अंगरखा मेरे पास छोड़ गया।” 16 इसलिए उसने यूसफ के मालिक अपने पति के घर लौटने के समय तक उसके अंगरखे को अपने पास रखा। 17 और उसने अपने पति को वही कहानी सुनाई। उसने कहा, “जिस हिब्रू दास को तुम यहाँ लाए उसने मुझ पर हमला करने का प्रयास किया। 18 किन्तु जब वह मेरे पास आया तो मैं चिल्लाई। वह भाग गया, किन्तु अपना अंगरखा छोड़ गया।”
19 यूसुफ के मालिक ने जो उसकी पत्नी ने कहा, उसे सुना और वह बहुत क्रोधित हुआ। 20 वहाँ एक कारागार था जिसमें राजा के शत्रु रखे जाते थे। इसलिए पोतीपर ने यूसुफ को उसी बंदी खाने में डाल दिया और यूसुफ वहाँ पड़ा रहा।
यूसुफ कारागार में
21 किन्तु यहोवा यूसुफ के साथ था। यहोवा उस पर कृपा करता रहा। 22 कुछ समय बाद कारागार के रक्षकों का मुखिया यूसुफ से स्नेह करने लगा। रक्षकों के मुखिया ने सभी कैदियों का अधिकारी यूसुफ को बनाया। यूसुफ उनका मुखिया था, किन्तु काम वही करता था जो वे करते थे। 23 रक्षकों का अधिकारी कारागार को सभी चीजों के लिए यूसुफ पर विश्वास करता था। यह इसलिए हुआ कि यहोवा यूसुफ के साथ था। यहोवा यूसुफ को, वह जो कुछ करता था, सफल करने में सहायता करता था।
सुफ दो सपनों की व्याख्या करता है
40 बाद में फ़िरौन के दो नौकरों ने फ़िरौन का कुछ नुकसान किया। इन नौकरों में से एक रोटी पकाने वाला तथा दूसरा फिरौन को दाखमधु देने वाले नौकर पर क्रोधित हुआ। 2-3 इसलिए फ़िरौन ने उसी कारागार में उन्हें भेजा जिसमें यूसुफ था। फ़िरौन के अंगरक्षकों का नायक पोतीपर उस कारागार का अधिकारी था। 4 नायक ने दोनों कैदियों को यूसुफ की देखरेख में रखा। दोनों कुछ समय तक कारागार में रहे। 5 एक रात दोनों कैदियों ने एक सपना देखा। (दोनों कैदी मिस्र के राजा के राजा के रोटी पकानेवाले तथा दाखमधु देने वाले नौकर थे।) हर एक कैदी के अपने—अपने सपने थे और हर एक सपने का अपना अलग अलग अर्थ था। 6 यूसुफ अगली सुबह उनके पास गया। यूसुफ ने देखा कि दोनों व्यक्ति परेशान थे। 7 यूसुफ ने पूछा, “आज तुम लोग इतने परेशान क्यों दिखाई पड़ते हो?”
8 दोनों व्यक्तियों ने उत्तर दिया, “पिछली रात हम लोगों ने सपना देखा, किन्तु हम लोग नहीं समझते कि सपने का क्या अर्थ है? कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जो सपनों की व्याख्या करे या हम लोगों को स्पष्ट बताए।”
यूसुफ ने उनसे कहा, “केवल परमेश्वर ही ऐसा है जो सपने को समझता और उसकी व्याख्या करता है। इसलिए मैं निवेदन करता हूँ कि अपने सपने मुझे बताओ।”
दाखमधु देने वाले नौकर का सपना
9 इसलिए दाखमधु देने वाले नौकर ने यूसुफ को अपना सपना बताया। नौकर ने कहा, “मैंने सपने में अँगूर की बेल देखी। 10 उस अंगूर की बेल की तीन शाखाएँ थीं। मैंने शाखाओं में फूल आते और उन्हें अँगूर बनते देखा। 11 मैं फ़िरौन का प्याला लिए था। इसलिए मैंने अंगूरों को लिया और प्याले में रस निचोड़ा। तब मैंने प्याला फ़िरौन को दिया।”
12 तब यूसुफ ने कहा, “मैं तुमको सपने की व्याख्या समझाऊँगा। तीन शाखाओं का अर्थ तीन दिन है। 13 तीन दिन बीतने के पहले फ़िरौन तुमको क्षमा करेगा और तुम्हें तुम्हारे काम पर लौटने देगा। तुम फ़िरौन के लिए वही काम करोगे जो पहले करते थे। 14 किन्तु जब तुम स्वतन्त्र हो जाओगे तो मुझे याद रखना। मेरी सहायता करना। फ़िरौन से मेरे बारे में कहना जिससे मैं इस कारागार से बाहर हो सकूँ। 15 मुझे अपने घर से लाया गया था जो मेरे अपने लोगों हिब्रूओं का देश है। मैंने कोई अपराध नहीं किया है। इसलिए मुझे कारागार में नहीं होना चाहिए।”
रोटी बनाने वाले का सपना
16 रोटी बनाने वाले ने देखा कि दूसरे नौकर का सपना अच्छा था। इसलिए रोटी बनाने वाले ने यूसुफ से कहा, “मैंने भी सपना देखा। मैंने देखा कि मेरे सिर पर तीन रोटियों की टोकरियाँ हैं। 17 सबसे ऊपर की टोकरी में हर प्रकार के पके भोजन थे। यह भोजन राजा के लिए था। किन्तु इस भोजन को चिड़ियाँ खा रही थीं।”
18 यूसुफ ने उत्त्तर दिया, “मैं तुम्हें बताऊँगा कि सपने का क्या अर्थ है? तीन टोकरियों का अर्थ तीन दिन है। 19 तीन दिन बीतने के पहले राजा तुमको इस जेल से बाहर निकालेगा। तब राजा तुम्हारा सिर काट डालेगा। वह तुम्हारे शरीर को एक खम्भे पर लटकाएगा और चिड़ियाँ तुम्हारे शरीर को खाएँगी।”
यूसुफ को भुला दिया गया
20 तीन दिन बाद फ़िरौन का जन्म दिन था। फ़िरौन ने अपने सभी नौकरों को दावत दी। दावत के समय फ़िरौन ने दाखमधु देने वाले तथा रोटी पकाने वाले नौकरों को कारागार से बाहर आने दिया। 21 फ़िरौन ने दाखमधु देने वाले नौकर को स्वतन्त्र कर दिया। फ़िरौन ने उसे नौकरी पर लौटा लिया और दाखमधु देने वाले नौकर ने फ़िरौन के हाथ में एक दाखमधु का प्याला दिया। 22 लेकिन फ़िरौन ने रोटी बनाने वाले को मार डाला। सभी बातें जैसे यूसुफ ने होनी बताई थीं वैसे ही हुईं। 23 किन्तु दाखमधु देने वाले नौकर को यूसुफ की सहायता करना याद नहीं रहा। उसने यूसुफ के बारे में फ़िरौन से कुछ नहीं कहा। दाखमधु देने वाला नौकर यूसुफ के बारे में भूल गया।
फिरौन के सपने
41 दो वर्ष बाद फ़िरौन ने सपना देखा। फिरौन ने सपने में देखा कि वह नील नदी के किनारे खड़ा है। 2 तब फ़िरौन ने सपने में नदी से सात गायों को बाहर आते देखा। गायें मोटी और सुन्दर थीं। गायें वहाँ खड़ी थीं और घास चर रही थीं। 3 तब सात अन्य गायें नदी से बाहर आईं, और नदी के किनारे मोटी गायों के पास खड़ी हो गईं। किन्तु ये गायें दुबली और भद्दी थीं। 4 ये सातों दुबली गायें, सुन्दर मोटी सात गायों को खा गईं। तब फ़िरौन जाग उठा।
5 फ़िरौन फिर सोया और दूसरी बार सपना देखा। उसने सपने में अनाज की सात बालें[a] एक अनाज के पीछे उगी हुई देखीं। अनाज की बालें मोटी और अच्छी थीं। 6 तब उसने उसी अनाज के पीछे सात अन्न बालें उगी देखीं। अनाज की ये बालें पतली और गर्म हवा से नष्ट हो गई थीं। 7 तब सात पतली बालों ने सात मोटी और अच्छी वालों को खा लिया। फ़िरौन फिर जाग उठा और उसने समझा कि यह केवल सपना ही है। 8 अगली सुबह फ़िरौन इन सपनों के बारे में परेशान था। इसलिए उसने मिस्र के सभी जादूगरों को और सभी गुणी लोगों को बुलाया। फ़िरौन ने उनको सपना बताया। किन्तु उन लोगों में से कोई भी सपने को स्पष्ट या उसकी व्याख्या न कर सका।
नौकर फ़िरौन को यूसुफ के बारे में बताता है
9 तब दाखमधु देने वाले नौकर को यूसुफ याद आ गया। नौकर ने फ़िरौन से कहा, “मेरे साथ जो कुछ घटा वह मुझे याद आ रहा है। 10 आप मुझ पर और एक दूसरे नौकर पर क्रोधित थे और आपने हम दोनों को कारागार में डाल दिया था। 11 कारागार में एक ही रात हम दोनों ने सपने देखे। हर सपना अलग अर्थ रखता था। 12 एक हिब्रू युवक हम लोगों के साथ कारागार में था। वह अंगरक्षको के नायक का नौकर था। हम लोगों ने अपने सपने उसको बताए और उसने सपने की व्याख्या हम लोगों को समझाई। उसने हर सपने का अर्थ हम लोगों को बताया। 13 जो अर्थ उसने बताए वे ठीक निकले। उसने बताया कि मैं स्वतन्त्र होऊँगा और अपनी पुरानी नौकरी फिर पाऊँगा और यही हुआ। उसने कहा कि रोटी पकाने वाला मरेगा और वही हुआ।”
यूसुफ सपनें की व्याख्या करने के लिए बुलाया गया
14 इसलिए फ़िरौन ने यूसुफ को कारागार से बुलाया। रक्षक जल्दी से यूसुफ को कारागार से बाहर लाए। यूसुफ ने बाल कटाए और साफ कपड़े पहने। तब वह गया और फ़िरौन के सामने खड़ा हुआ। 15 तब फ़िरौन ने यूसुफ से कहा, “मैंने एक सपना देखा है। किन्तु कोई ऐसा नहीं है जो सपने की व्याख्या मुझको समझा सके। मैंने सुना है कि जब कोई सपने के बारे में तुमसे कहता है तब तुम सपनों की व्याख्या और उन्हें स्पष्ट कर सकते हो।”
16 यूसुफ ने उत्तर दिया, “मेरी अपनी बुद्धि नहीं है कि मैं सपनों को समझ सकूँ केवल परमेश्वर ही है जो ऐसी शक्ति रखता है और फ़िरौन के लिए परमेश्वर ही यह करेगा।”
17 तब फ़िरौन ने कहा, “अपने सपने में, मैं नील नदी के किनारे खड़ा था। 18 मैंने सात गायों को नदी से बाहर आते देखा और घास चरते देखा। ये गायें मोटी और सुन्दर थीं। 19 तब मैंने अन्य सात गायों को नदी से बाहर आते देखा। वे गायें पतली और भद्दी थीं। मैंने मिस्र देश में जितनी गायें देखी हैं उनमें वे सब से अधिक बुरी थीं। 20 और इन भद्दी और पतली गायों ने पहली सुन्दर सात गायों को खा डाला। 21 लेकिन सात गायों को खाने के बाद तक भी वे पतली और भद्दी ही रहीं। तुम उनको देखो तो नहीं जान सकते कि उन्होंने अन्य सात गायों को खाया है। वे उतनी ही भद्दी और पतली दिखाई पड़ती थीं जितनी आरम्भ में थीं। तब मैं जाग गया।
22 “तब मैंने अपने दूसरे सपने में अनाज की सात बालें एक ही अनाज के पीछे उगी देखीं। वे अनाज की बालें भरी हुई, अच्छी और सुन्दर थीं। 23 तब उनके बाद सात अन्य बालें उगीं। किन्तु ये बालें पतली, भद्दी और गर्म हवा से नष्ट थीं। 24 तब पतली बालों ने सात अच्छी बालों को खा डाला।
“मैंने इस सपने को अपने लोगों को बताया जो जादूगर और गुणी हैं। किन्तु किसी ने सपने की व्याख्या मुझको नहीं समझाई। इसका अर्थ क्या है?”
यूसुफ सपने का अर्थ बताता है
25 तब यूसुफ ने फ़िरौन से कहा, “ये दोनों सपने एक ही अर्थ रखते हैं। परमेश्वर तुम्हें बता रहा है जो जल्दी ही होगा। 26 सात अच्छी गायें और सात अच्छी अनाज की बालें[b] सात वर्ष हैं, दोनों सपने एक ही हैं। 27 सात दुबली और भद्दी गायें तथा सात बुरी अनाज की बालें देश में भूखमरी के सात वर्ष हैं। ये सात वर्ष, अच्छे सात वर्षो के बाद आयेंगे। 28 परमेश्वर ने आपको यह दिखा दिया है कि जल्दी ही क्या होने वाला है। यह वैसा ही होगा जैसा मैंने कहा है। 29 आपके सात वर्ष पूरे मिस्र में अच्छी पैदावार और भोजन बहुतायत के होंगे। 30 लेकिन इन सात वर्षों के बाद पूरे देश में भूखमरी के सात वर्ष आएंगे। जो सारा भोजन मिस्र में पैदा हुवा है उसे लोग भूल दाएंगे। यह अकाल देश को नष्ट कर देगा। 31 भरपूर भोजनस्मरण रखना लोग भूल जाएंगे कि क्या होता है?
32 “हे फ़िरौन, आपने एक ही बात के बारे में दो सपने देखे थे। यह इस बात को दिखाने के लिए हुआ कि परमेश्वर निश्चय ही ऐसा होने देगा और यह बताया है कि परमेश्वर इसे जल्दी ही होने देगा। 33 इसलिए हे फ़िरौन आप एक ऐसा व्यक्ति चुनें जो बहुत चुस्त और बुद्धिमान हो। आप उसे मिस्र देश का प्रशासक बनाएँ। 34 तब आप दूसरे व्यक्तियों को जनता से भोजन इकट्ठा करने के लिए चुनें। हर व्यक्ति सात अच्छे वर्षों में जितना भोजन उत्पन्न करे, उसका पाँचवाँ हिस्सा दे। 35 इन लोगों को आदेश दें कि जो अच्छे वर्ष आ रहे हैं उनमें सारा भोजन इकट्ठा करें। व्यक्तियों से कह दें कि उन्हें नगरों में भोजन जमा करने का अधिकार है। तब वे भोजन की रक्षा उस समय तक करेंगे जब उनकी आवश्यकता होगी। 36 वह भोजन मिस्र देश में आने वाले भूखमरी के सात वर्षों में सहायता करेगा। तब मिस्र में सात वर्षों में लोग भोजन के अभाव में मरेंगे नहीं।”
37 फ़िरौन को यह अच्छा विचार मालूम हुआ। इससे सभी अधिकारी सहमत थे। 38 फ़िरौन ने अपने अधिकारियों से पूछा, “क्या तुम लोगों में से कोई इस काम को करने के लिए यूसुफ से अच्छा व्यक्ति ढूँढ सकता है? परमेश्वर की आत्मा ने इस व्यक्ति को सचमुच बुद्धिमान बना दिया है।”
39 फ़िरौन ने यूसुफ से कहा, “परमेश्वर ने ये सभी चीज़ें तुम को दिखाई हैं। इसलिए तुम ही सर्वाधिक बुद्धिमान हो। 40 इसलिए मैं तुमको देश का प्रशासक बनाऊँगा। जनता तुम्हारे आदेशों का पालन करेगी। मैं अकेला इस देश में तुम से बड़ा प्रशासक रहूँगा।”
41 एक विशेष समारोह और प्रदर्शन था जिसमें फ़िरौन ने यूसुफ को प्रशासक बनाया तब फ़िरौन ने यूसुफ से कहा, “मैं अब तुम्हें मिस्र के पूरे देश का प्रशासक बनाता हूँ।” 42 तब फिरौन ने अपनी राज्य की मुहर वाली अगूँठी यूसुफ को दी और यूसुफ को एक सुन्दर रेशमी वस्त्र पहनने को दिया। फ़िरौन ने यूसुफ के गले में एक सोने का हार डाला। 43 फ़िरौन ने दूसरे श्रेणी के राजकीय रथ पर यूसुफ को सवार होने को कहा। उसके रथ के आगे विशेष रक्षक चलते थे। वे लोगों से कहते थे, “हे लोगो, यूसुफ को झुककर प्रणाम करो। इस तरह यूसुफ पूरे मिस्र का प्रशासक बना।”
44 फ़िरौन ने उससे कहा, “मैं सम्राट फ़िरौन हूँ। इसलिए मैं जो करना चाहूँगा, करूँगा। किन्तु मिस्र में कोई अन्य व्यक्ति हाथ पैर नहीं हिला सकता है जब तक तुम उसे न कहो।” 45 फ़िरौन ने उसे दूसरा नाम सापन तपानेह दिया। फ़िरौन ने आसनत नाम की एक स्त्री, जो ओन के याजक पोतीपेरा की पुत्री थी, यूसुफ को पत्नी के रूप में दी। इस प्रकार यूसुफ पूरे मिस्र देश का प्रशासक हो गया।
46 यूसुफ उस समय तीस वर्ष का था जब वह मिस्र के सम्राट की सेवा करने लगा। यूसुफ ने पूरे मिस्र देश में यात्राएँ कीं। 47 अच्छे सात वर्षों में देश में पैदावार बहुत अच्छी हुई 48 और यूसुफ ने मिस्र में सात वर्ष खाने की चीजें बचायीं। यूसुफ ने भोजन नगरों में जमा किया। यूसुफ ने नगर के चारों ओर के खेतों के उपजे अन्न को हर नगर में जमा किया। 49 यूसुफ ने बहुत अन्न इकट्ठा किया। यह समुद्र के बालू के सदृश था। उसने इतना अन्न इकट्ठा किया कि उसके वजन को भी न आँका जा सके।
50 यूसुफ की पत्नी आसनत ओन के याजक पोतीपरा कि पुत्री थी। भूखमरी के पहले वर्ष के आने के पूर्व यूसुफ और आसनेत के दो पुत्र हुए। 51 पहले पुत्र का नाम मनश्शे रखा गया। यूसुफ ने उसका यह नाम रखा क्योंकि उसने बताया, “मुझे जितने सारे कष्ट हुए तथा घर की हर बात परमेश्वर ने मुझसे भुला दी।” 52 यूसुफ ने दूसरे पुत्र का नाम एप्रैम रखा। यूसुफ ने उसका नाम यह रखा क्योंकि उसने बताया, “मुझे बहुत दुःख मिला, लेकिन परमेश्वर ने मुझे फुलाया—फलाया।”
भूखमरी का समय आरम्भ होता है
53 सात वर्ष तक लोगों के पास खाने के लिए यह सब भोजन था जिसकी उन्हें आवश्यकता थी और जो चीजें उन्हें आवश्यक थीं वे सभी उगती थीं। 54 किन्तु सात वर्ष वाद भूखमरी के दिन शुरु हुए। यह ठीक वैसा ही हुआ जैसा यूसुफ ने कहा था। सारी भूमि में चारों ओर अन्न पैदा न हुआ। लोगों के पास खाने को कुछ न था। किन्तु मिस्र में लोगों के खाने के लिए काफी था, क्योंकि यूसुफ ने अन्न जमा कर रखा था। 55 भूखमरी का समय शुरु हुआ और लोग भोजन के लिए फ़िरौन के सामने रोने लगे। फ़िरौन ने मिस्री लोगों से कहा, “यूसुफ से पूछो। वही करो जो वह करने को कहता है।”
56 इसलिए जब देश में सर्वत्र भूखमरी थी, यूसुफ ने अनाज के गोदामों से लोगों को अन्न दिया। यूसुफ ने जमा अन्न को मिस्र के लोगों को बेचा। मिस्र में बहुत भयंकर अकाल था। 57 मिस्र के चारों ओर के देशों के लोग अनाज खरीदने मिस्र आए। वे यूसुफ के पास आए क्योंकि वहाँ संसार के उस भाग में सर्वत्र भूखमरी थी।
स्वप्न सच हुआ
42 इस समय याकूब के प्रदेश में भूखमरी थी। किन्तु याकूब को यह पता लगा कि मिस्र में अन्न है। इसलिए याकूब ने अपने पुत्रों से कहा, “हम लोग यहाँ हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे है? 2 मैंने सुना है कि मिस्र में खरीदने के लिए अन्न है। इसलिए हम लोग वहाँ चलें और वहाँ से अपने खाने के लिए अन्न खरीदें, तब हम लोग जीवित रहेंगे, मरेंगे नहीं।”
3 इसलिए यूसुफ के भाईयों में से दस अन्य खरीदने मिस्र गए। 4 याकूब ने बिन्यामीन को नहीं भेजा। (बिन्यामीन यूसुफ का एकमात्र सगा भाई[a] था।)
5 कनान में भूखमरी का समय बहुत भयंकर था। इसलिए कनान के बहुत से लोग अन्न खरीदने मिस्र गए। उन्हीं लोगों में इस्राएल के पुत्र भी थे।
6 इस समय यूसुफ मिस्र का प्रशासक था। केवल यूसुफ ही था जो मिस्र आने वाले लोगों को अन्न बेचने का आदेश देता था। यूसुफ के भाई उसके पास आए और उन्होंने उसे झुककर प्रणाम किया। 7 यूसुफ ने अपने भाईयों को देखा और उसने उन्हें पहचान लिया कि वे कौन हैं। किन्तु यूसुफ उनसे इस तरह बात करता रहा जैसे वह उन्हें पहचानता ही नहीं। उसने उनके साथ क्रूरता से बात की। उसने कहा, “तुम लोग कहाँ से आए हो?”
भाईयों ने उत्तर दिया, “हम कनान देश से आए हैं। हम लोग अन्न खरीदने आए हैं।”
8 यूसुफ जानता था कि वे लोग उसके भाई हैं। किन्तु वे नहीं जानते थे कि वह कौन हैं? 9 यूसुफ ने उन सपनों को याद किया जिन्हें उसने अपने भाईयों के बारे में देखा था।
यूसुफ ने अपने भाईयों से कहा, “तुम लोग अन्न खरीदने नहीं आए हो। तुम लोग जासूस हो। तुम लोग यह पता लगाने आए हो कि हम कहाँ कमजोर हैं?”
10 किन्तु भाईयों ने उससे कहा, “नहीं महोदय! हम तो आपके सेवक के रूप में आए हैं। हम लोग केवल अन्न खरीदने आए हैं। 11 हम सभी लोग भाई हैं, हम लोगों का एक ही पिता है। हम लोग ईमानदार हैं। हम लोग केवल अन्न खरीदने आए है।”
12 तब यूसुफ ने उनसे कहा, “नहीं, तुम लोग यह पता लगाने आए हो कि हम कहाँ कमजोर हैं?”
13 भाईयों ने कहा, “नहीं हम सभी भाई हैं। हमारे परिवार में बारह भाई हैं। हम सबका एक ही पिता हैं। हम लोगों का सबसे छोटा भाई अभी भी हमारे पिता के साथ घर पर है और दूसरा भाई बहुत समय पहले मर गया। हम लोग आपके सामने सेवक की तरह हैं। हम लोग कनान देश के हैं।”
14 किन्तु यूसुफ ने कहा, “नहीं मुझे पता है कि मैं ठीक हूँ। तुम भेदिये हो। 15 किन्तु मैं तुम लोगों को यह प्रमाणित करने का अवसर दूँगा कि तुम लोग सच कह रहे हो। तुम लोग यह जगह तब तक नहीं छोड़ सकते जब तक तुम लोगों का छोटा भाई यहाँ नहीं आता। 16 इसलिए तुम लोगों में से एक लौटे और अपने छोटे भाई को यहाँ लाए। उस समय तक अन्य यहाँ कारागार में रहेंगे। हम देखेंगे कि क्या तुम लोग सच बोल रहे हो। किन्तु मुझे विश्वास है कि तुम लोग जासूस हो।” 17 तब यूसुफ ने उन सभी को तीन दिन के लिए कारागार में डाल दिया।
शिमोन बन्धक के रूप में रखा गया
18 तीन दिन बाद यूसुफ ने उनसे कहा, “मैं परमेश्वर का भय मानता हूँ। इसलिए मैं तुम लोगों को यह प्रमाणित करने का एक अवसर दूँगा कि तुम लोग सच बोल रहे हो। तुम लोग यह काम करो और मैं तुम लोगों को जीवित रहने दूँगा। 19 अगर तुम लोग ईमानदार व्यक्ति हो तो अपने भाईयों में से एक को कारागार में रहने दो। अन्य जा सकते हैं और अपने लोगों के लिए अन्न ले जा सकते हैं। 20 तब अपने सबसे छोटे भाई को लेकर यहाँ मेरे पास आओ। इस प्रकार मैं विश्वास करूँगा कि तुम लोग सच बोल रहे हो।”
भाईयों ने इस बात को मान लिया। 21 उन्होंने आपस में बात की, “हम लोग दण्डित किए गए हैं।[b] क्योंकि हम लोगों ने अपने छोटे भाई के साथ बुरा किया है। हम लोगों ने उसके कष्टों को देखा जिसमें वह था। उसने अपनी रक्षा के लिए हम लोगों से प्रार्थना की। किन्तु हम लोगों ने उसकी एक न सुनी। इसलिए हम लोग दुःखों में हैं।”
22 तब रूबेन ने उनसे कहा, “मैंने तुमसे कहा था कि उस लड़के का कुछ भी बुरा न करो। लेकिन तुम लोगों ने मेरी एक न सुनी। इसलिए अब हम उसकी मृत्यु के लिए दण्डित हो रहे हैं।”
23 यूसुफ अपने भाईयों से बात करने के लिए एक दुभाषिये से काम ले रहा था। इसलिए भाई नहीं जानते थे कि यूसुफ उनकी भाषा जानता है। किन्तु वे जो कुछ कहते थे उसे यूसुफ सुनता और समझता था। 24 उनकी बातों से यूसुफ बहुत दुःखी हुआ। इसलिए यूसुफ उनसे अलग हट गया और रो पड़ा। थोड़ी देर में यूसुफ उनके पास लौटा। उसने भाईयों में से शिमोन को पकड़ा और उसे बाँधा जब कि अन्य भाई देखते रहे।
25 यूसुफ ने कुछ सेवकों को उनकी बोरियों को अन्न से भरने को कहा। भाईयों ने इस अन्न का मूल्य यूसुफ को दिया। किन्तु यूसुफ ने उस धन को अपने पास नहीं रखा। उसने उस धन को उनकी अनाज की बोरियों में रख दिया। तब यूसुफ ने उन्हें वे चीज़ें दीं, जिनकी आवश्यकता उन्हें घर तक लौटने की यात्रा में हो सकती थी। 26 इसलिए भाईयों ने अन्न को अपने गधों पर लादा और वहाँ से चल पड़े। 27 वे सभी भाई रात को ठहरे और भाईयों में से एक ने कुछ अन्न के लिए अपनी बोरी खोली और उसने अपना धन अपनी बोरी में पाया। 28 उसने अन्य भाईयों से कहा, “देखो, जो मूल्य मैंने अन्न के लिए चुकाया, वह यहाँ है। किसी ने मेरी बोरी में ये धन लौटा दिया है। वे सभी भाई बहुत अधिक भयभीत हो गए। उन्होंने आपस में बातें की, परमेश्वर हम लोगों के साथ क्या कर रहा है?”
भाईयों ने याकूब को सूचित किया
29 वे भाई कनान देश में अपने पिता याकूब के पास गए। उन्होंने जो कुछ हुआ था अपने पिता को बताया। 30 उन्होंने कहा, “उस देश का प्रशासक हम लोगों से बहुत रूखाई से बोला। उसने सोचा कि हम लोग उस सेना की ओर से भेजे गए हैं जो वहाँ के लोगों को नष्ट करना चाहती है। 31 लेकिन हम लोगों ने कहा कि, हम लोग ईमानदार हैं। हम लोग किसी सेना में से नहीं हैं। 32 हम लोगों ने उसे बताया कि, ‘हम लोग बारह भाई हैं। हम लोगों ने अपने पिता के बारे में बताया और यह कहा कि हम लोगों का सबसे छोटा भाई अब भी कनान देश में है।’”
33 “तब देश के प्रशासक ने हम लोगों से यह कहा, ‘यह प्रमाणित करने के लिए कि तुम ईमानदार हो यह रास्ता है: अपने भाईयों में से एक को हमारे पास यहाँ छोड़ दो। अपना अन्न लेकर अपने परिवारों के पास लौट जाओ। 34 अपने सबसे छोटे भाई को हमारे पास लाओ। तब मैं समझूँगा कि तुम लोग ईमानदार हो अथवा तुम लोग हम लोगों को नष्ट करने वाली सेना की ओर से नहीं भेजे गए हो। यदि तुम लोग सच बोल रहे हो तो मैं तुम्हारे भाई को तुम्हें दे दूँगा।’”
35 तब सब भाई अपनी बोरियों से अन्न लेने गए और हर एक भाई ने अपने धन की थैली अपने अन्न की बोरी में पाई। भाईयों और उनके पिता ने धन को देखा और वे बहुत डर गए।
36 याकूब ने उनसे कहा, “क्या तुम लोग चाहते हो कि मैं अपने सभी पुत्रों से हाथ धो बैठूँ। यूसुफ तो चला ही गया। शिमोन भी गया और तुम लोग बिन्यामीन को भी मुझसे दूर ले जाना चाहते हो।”
37 तब रूबेन ने अपने पिता से कहा, “पिताजी आप मेरे दो पुत्रों को मार देना यदि मैं बिन्यामीन को आपके पास न लौटाऊँ मुझ पर विश्वास करें मैं आप के पास बिन्यामीन को लौटा लाऊँगा।”
38 किन्तु याकूब ने कहा, “मैं बिन्यामीन को तुम लोगों के साथ नहीं जाने दूँगा। उसका भाई मर चुका है। और मेरी पत्नी राहेल का वही अकेला पुत्र बचा है। मिस्र तक की यात्रा में यदि उसके साथ कुछ हुआ तो वह घटना मुझे मार डालेगी। तुम लोग मुझ वृद्ध को कब्र में बहुत दुःखी करके भेजोगे।”
याकूब ने बिन्यामीन को मिस्र जाने की आज्ञा दी
43 देश में भूखमरी का समय बहुत ही बुरा था। वहाँ कोई भी खाने की चीज नहीं उग रही थी। 2 लोग वह सारा अन्न खा गए जो वे मिस्र से लाये थे। जब अन्न समाप्त हो गया, याकूब ने अपने पुत्रों से कहा, “फिर मिस्र जाओ। हम लोगों के खाने के लिए कुछ और अन्न खरीदो।”
3 किन्तु यहूदा ने याकूब से कहा, “उस देश के प्रसाशक ने हम लोगों को चेतावनी दी है। उसने कहा है, ‘यदि तुम लोग अपने भाई को मेरे पास वापस नहीं लाओगे तो मैं तुम लोगों से बात करने से मना भी कर दूँगा।’ 4 यदि तुम हम लोगों के साथ बिन्यामीन को भेजोगे तो हम लोग जाएंगे और अन्न खरीदेंगे। 5 किन्तु यदि तुम बिन्यामीन को भेजने से मना करोगे तब हम लोग नहीं जाएंगे। उस व्यक्ति ने चेतावनी दी कि हम लोग उसके बिना वापस न आएं।”
6 इस्राएल (याकूब) ने कहा, “तुम लोगों ने उस व्यक्ति से क्यों कहा, कि तुम्हारा अन्य भाई भी है। तुम लोगों ने मेरे साथ ऐसी बुरी बात क्यों की?”
7 भाईयों ने उत्तर दिया, “उस व्यक्ति ने सावधानी से हम लोगों से प्रश्न पूछे। वह हम लोगों तथा हम लोगों के परिवार के बारे में जानना चाहता था। उसने हम लोगों से पूछा, ‘क्या तुम लोगों का पिता अभी जीवित है? क्या तुम लोगों का अन्य भाई घर पर है?’ हम लोगों ने केाल उसके प्रश्नों के उत्तर दिए। हम लोग नहीं जानते थे के वह हमारे दूसरे भाई को अपने पास लाने को कहेगा।”
8 तब यहूदा ने अपने पिता इस्राएल से कहा, “बिन्यामीन को मेरे साथ भेजो। मैं उसकी देखभाल करूँगा हम लोग मिस्र अवश्य जाएंगे और भोजन लाएंगे। यदि हम लोग नहीं जाते हैं तो हम लोगों के बच्चे भी मर जाएँगे। 9 मैं विश्वास दिलाता हूँ कि वह सुरक्षित रहेगा। मैं इसका उत्तरदायी रहूँगा। यदि मैं उसे तुम्हारे पास लौटाकर न लाऊँ तो तुम सदा के लिए मुझे दोषी ठहरा सकते हो। 10 यदि तुमने हमें पहले जाने दिया होता तो भोजन के लिए हम लोग दो यात्राएँ अभी तक कर चुके होते।”
11 तब उनके पिता इस्राएल ने कहा, “यदि यह सचमुच सही है तो बिन्यामीन को अपने साथ ले जाओ। किन्तु प्रशासक के लिए कुछ भेंट ले जाओ। उन चीजों में से कुछ ले जाओ जो हम लोग अपने देश में इकट्ठा कर सके हैं। उसके लिए कुछ शहद, पिस्ते, बादाम, गोंद और लोबान ले जाओ। 12 इस समय, पहले से दुगुना धन भी ले लो जो पिछली बार देने के बाद लौटा दिया गया था। संभव है कि प्रशासक से गलती हुई हो। 13 बिन्यामीन को साथ लो और उस व्यक्ति के पास ले जाओ। 14 मैं प्रार्थना करता हूँ कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर तुम लोगों की उस समय सहायता करेगा जब तुम प्रशासक के सामने खड़े होओगे। मैं प्रार्थना करता हूँ कि वह बिन्यामीन और शिमोन को भी सुरक्षित आने देगा। यदि नहीं तो मैं अपने पुत्र से हाथ धोकर फिर दुःखी होऊँगा।”
15 इसलिए भाईयों ने प्रशासक को देने के लिए भेंटें लीं और उन्होंने जितना धन पहले लिया था उसका दुगना धन अपने साथ लिया। बिन्यामीन भाईयों के साथ मिस्र गया।
भाई यूसुफ के घर निमन्त्रित होते हैं
16 मिस्र में यूसुफ ने उनके साथ बिन्यामीन को देखा। यूसुफ ने अपने सेवक से कहा, “उन व्यक्तियों को मेरे घर लाओ। एक जानवर मारो और पकाओ। वे व्यक्ति आज दोपहर को मेरे साथ भोजन करेंगे।” 17 सेवक को जैसा कहा गया था वैसा किया। वह उन व्यक्तियों को यूसुफ के घर लाया।
18 भाई डरे हुए थे जब वे यूसुफ के घर लाए गए। उन्होंने कहा, “हम लोग यहाँ उस धन के लिए लाए गए हैं जो पिछली बार हम लोगों की बोरियों में रख दिया गया था। वे हम लोगों को अपराधी सिद्ध करने लिए उनका उपयोग करेंगे। तब वे हम लोगों के गधों को चुरा लेंगे और हम लोगों को दास बनाएँगे।”
19 अतः यूसुफ के घर की देख—रेख करने वाले सेवक के पास सभी भाई गए। 20 उन्होंने कहा, “महोदय, मैं प्रतिज्ञापूर्वक सच कहता हूँ कि पिछली बार हम आए थे। हम लोग भोजन खरीदने आए थे। 21-22 घर लौटते समय हम लोगों ने अपनी बोरियाँ खोलीं और हर एक बोरी में अपना धन पाया। हम लोग नहीं जानते कि उनमें धन कैसे पहुँचा। किन्तु हम वह धन आपको लौटाने के लिए साथ लाए हैं और इस समय हम लोग जो अन्न खरीदना चाहते हैं उसके लिए अधिक धन लाए हैं।”
23 किन्तु सेवक ने उत्तर दिया, “डरो नहीं, मुझ पर विश्वास करो। तुम्हारे पिता के परमेश्वर ने तुम लोगों के धन को तुम्हारी बोरियों में भेंट के रूप में रखा होगा। मुझे याद है कि तुम लोगों ने पिछली बार अन्न का मूल्य मुझे दे दिया था।”
सेवक शिमोन को कारागार से बाहर लाया। 24 सेवक उन लोगों को यूसुफ के घर ले गया। उसने उन्हें पानी दिया और उन्होंने अपने पैर धोए। तब तक उसने उनके गधों को खाने के लिए चारा दिया।
25 भाईयों ने सुना कि वे यूसुफ के साथ भोजन करेंगे। इसलिए उसके लिए अपनी भेंट तैयार करने में वे दोपहर तक लगे रहे।
26 यूसुफ घर आया और भाईयों ने उसे भेंटें दीं जो वे अपने साथ लाए थे। तब उन्होंने धरती पर झुककर प्रणाम किया।
27 यूसुफ ने उनकी कुशल पूछी। यूसुफ ने कहा, “तुम लोगों का वृद्ध पिता जिसके बारे में तुम लोगों ने बताया, ठीक तो है? क्या वह अब तक जीवित है?”
28 भाईयों ने उत्तर दिया, “महोदय, हम लोगों के पिता ठीक हैं। वे अब तक जीवित है” और वे फिर यूसुफ के सामने झुके।
29 तब यूसुफ ने अपने भाई बिन्यामीन को देखा। (बिन्यामीन और यूसुफ की एक ही माँ थी) यूसुफ ने कहा, “क्या यह तुम लोगों का सबसे छोटा भाई है जिसके बारे में तुम ने बताया था?” तब यूसुफ ने बिन्यामीन से कहा, “परमेश्वर तुम पर कृपालु हो।”
30 तब यूसुफ कमरे से बाहर दौड़ गया। यूसुफ बहुत चाहता था कि वह अपने भाईयों को दिखाए कि वह उनसे बहुत प्रेम करता है। वह रोने—रोने सा हो रहा था, किन्तु वह नहीं चाहता था कि उसके भाई उसे रोता देखें। इसलिए वह अपने कमरे में दौड़ता हुआ पहुँचा और वहीं रोया। 31 तब यूसुफ ने अपना मुँह धोया और बाहर आया। उसने अपने को संभाला और कहा, “अब भोजन करने का समय है।”
32 यूसुफ ने अकेले एक मेज पर भोजन किया। उसके भाईयों ने दूसरी मेज पर एक साथ भोजन किया। मिस्री लोगों ने अन्य मेज पर एक साथ खाया। उनका विश्वास था कि उनके लिए यह अनुचित है कि वे हिब्रू लोगों के साथ खाएं। 33 यूसुफ के भाई उसके सामने की मेज पर बैठे थे। सभी भाई सबसे बड़े भाई से आरम्भ कर सबसे छोटे भाई तक क्रम में बैठे थे। सभी भाई एक दूसरे को, जो हो रहा था उस पर आश्चर्य करते हुए देखते जा रहे थे। 34 सेवक यूसुफ की मेज से उनको भोजन ले जाते थे। किन्तु औरों की तुलना में सेवकों ने बिन्यामीन को पाँच गुना अधिक दिया। यूसुफ के साथ वे सभी भाई तब तक खाते और दाखमधु पीते रहे जब तक वे नशे में चूर नहीं हो गया।
यूसुफ जाल बिछाता है
44 तब यूसुफ ने अपने नौकर को आदेश दिया। यूसुफ ने कहा, “उन व्यक्तियों की बोरियों में इतना अन्न भरो जितना ये ले जा सकें और हर एक का धन उस की अन्न की बोरी में रख दो। 2 सबसे छोटे भाई की बोरी में धन रखो। किन्तु उसकी बोरी में मेरी विशेष चाँदी का प्याला भी रख दो।” सेवक ने यूसुफ का आदेश पूरा किया।
3 अगले दिन बहुत सुबह सब भाई अपने गधों के साथ अपने देश को वापस भेज दिए गए। 4 जब वे नगर को छोड़ चुके, यूसुफ ने अपने सेवक से कहा, “जाओ और उन लोगों का पीछा करो। उन्हें रोको और उनसे कहो, ‘हम लोग आप लोगों के प्रति अच्छे रहे। किन्तु आप लोगों ने हमारे यहाँ चोरी क्यों की? आप लोगों ने यूसुफ का चाँदी का प्याला क्यों चुराया? 5 हमारे मालिक यूसुफ इसी प्याले से पीते हैं। वे सपने की व्याख्या के लिए इसी प्याले का उपयोग करते हैं। इस प्याले को चुराकर आप लोगों ने अपराध किया है।’”
6 अतः सेवक ने आदेश का पालन किया। वह सवार हो कर भाईयों तक गया और उन्हें रोका। सेवक ने उनसे वे ही बातें कहीं जो यूसुफ ने उनसे कहने के लिए कही थीं।
7 किन्तु भाईयों ने सेवक से कहा, “प्रशासक ऐसी बातें क्यों कहते हैं? हम लोग ऐसा कुछ नहीं कर सकते। 8 हम लोग वह धन लौटाकर लाए जो पहले हम लोगों की बोरियों में मिले थे। इसलिए निश्चय ही हम तुम्हारे मालिक के घर से चाँदी या सोना नहीं चुराएंगे। 9 यदी आप किसी बोरी मे चाँदी का वह प्याला पा जायें तो उस व्यक्ति को मर जाने दिया जाये। तुम उसे मार सकते हो और हम लोग तुम्हारे दास होंगे।”
10 सेवक ने कहा, “जैसा तुम कहते हो हम वैसा ही करेंगे, किन्तु मैं उस व्यक्ति को मारूँगा नहीं। यदि मुझे चाँदी का प्याला मिलेगा तो वह व्यक्ति मेरा दास होगा। अन्य भाई स्वतन्त्र होंगे।”
जाल फेंका गया, बिन्यामीन पकड़ा गया
11 तब सभी भाईयों ने अपनी बोरियाँ जल्दी जल्दी ज़मीन पर खोलीं। 12 सेवक ने बोरियों जल्दी जल्दी जमीन पर खोली। सेवक ने बोरियों में देखा। उसने सबसे बड़े भाई से आरम्भ किया और सबसे छोटे भाई पर अन्त किया। उसने बिन्यामीन की बोरी में प्याला पाया। 13 भाई बहुत दुःखी हुए। उन्होंने दुःख के कारण अपने वस्त्र फाड़ डाले। उन्होंने अपनी बोरियाँ गधों पर लादीं और नगर को लौट पड़े।
14 यहूदा और उसके भाई यूसुफ के घर लौटकर गए। यूसुफ तब तक वहाँ था। भाईयों ने पृथ्वी तक झुककर प्रणाम किया। 15 यूसुफ ने उनसे कहा, “तुम लोगों ने यह क्यों किया? क्या तुम लोगों को पता नहीं है कि गुप्त बातों को जानने का मेरा विशेष ढंग है। मुझसे बढ़कर अच्छी तरह कोई दूसरा यह नहीं कर सकता।”
16 यहूदा ने कहा, “महोदय, हम लोगों को कहने के लिए कुछ नहीं है। स्पष्ट करने का कोई रास्ता नहीं है। यह दिखाने का कोई तरीका नहीं है कि हम लोग अपराधी नहीं है। हम लोगों ने और कुछ किया होगा जिसके लिए परमेश्वर ने हमें अपराधी ठहराया। इसलिए हम सभी बिन्यामीन भी, आपके दास होंगे।”
17 किन्तु यूसुफ ने कहा, “मैं तुम सभी को दास नहीं बनाउँगा। केवल वह व्यक्ति जिसने प्याला चुराया है, मेरा दास होगा। अन्य तुम लोग शान्ति से अपने पिता के पास जा सकते हो।”
यहूदा बिन्यामीन की सिफारिश करता है
18 तब यहूदा यूसुफ के पास गया और उसने कहा, “महोदय, कृपाकर मुझे स्वयं स्पष्ट कह लेने दें। कृपा कर मुझ से अप्रसन्न न हों। मैं जानता हूँ कि आप स्वयं फ़िरौन जैसे हैं। 19 जब हम लोग पहले यहाँ आए थे, आपने पूछा था कि ‘क्या तुम्हारे पिता या भाई हैं?’ 20 और हमने आपको उत्तर दिया, ‘हमारे एक पिता हैं, वे बूढ़े हैं और हम लोगों का एक छोटा भाई है। हमारे पिता उससे बहुत प्यार करते हैं। क्योंकि उसका जन्म उनके बूढ़ापे में हुआ था, यह अकेला पुत्र है। हम लोगों के पिता उसे बहुत प्यार करते हैं।’ 21 तब आपने हमसे कहा था, ‘उस भाई को मेरे पास लाओ। मैं उसे देखना चाहता हूँ।’ 22 और हम लोगों ने कहा था, ‘वह छोटा लड़का नहीं आ सकता। वह अपने पिता को नहीं छोड़ सकता। यदि उसके पिता को उससे हाथ धोना पड़ा तो उसका पिता इतना दुःखी होगा कि वह मर जाएगा।’ 23 किन्तु आपने हमसे कहा, ‘तुम लोग अपने छोटे भाई को अवश्य लाओ, नहीं तो मैं फिर तुम लोगों के हाथ अन्न नहीं बेचूँगा।’ 24 इसलिए हम लोग अपने पिता के पास लौटे और आपने जो कुछ कहा, उन्हें बताया।
25 “बाद में हम लोगों के पिता ने कहा, ‘फिर जाओ और हम लोगों के लिए कुछ और अन्न खरीदो।’ 26 और हम लोगों ने अपने पिता से कहा, ‘हम लोग अपने सबसे छोटे भाई के बिना नहीं जा सकते। शासक ने कहा है कि वह तब तक हम लोगों को फिर अन्न नहीं बेचेगा जब तक वह हमारे सबसे छोटे भाई को नहीं देख लेता।’ 27 तब मेरे पिता ने हम लोगों से कहा, ‘तुम लोग जानते हो कि मेरी पत्नी राहेल ने मुझे दो पुत्र दिये। 28 मैंने एक पुत्र को दूर जाने दिया और वह जंगली जानवर द्वारा मारा गया और तब से मैंने उसे नहीं देखा है। 29 यदि तुम लोग मेरे दूसरे पुत्र को मुझसे दूर ले जाते हो और उसे कुछ हो जाता है तो मुझे इतना दुःख होगा कि मैं मर जाऊँगा।’ 30 इसलिए यदि अब हम लोग अपने सबसे छोटे भाई के बिना घर जायेंगे तब हम लोगों के पिता को यह देखना पड़ेगा। यह छोटा लड़का हमारे पिता के जीवन में सबसे अधिक महत्व रखता है। 31 जब वे देखेंगे कि छोटा लड़का हम लोगों के साथ नहीं है वे मर जायेंगे और यह हम लोगों का दोष होगा। हम लोग अपने पिता के घोर दुःख एवं मृत्यु का कारण होंगे।
32 “मैंने छोटे लड़के का उत्तरदायित्व लिया है। मैंने अपने पिता से कहा, ‘यदि मैं उसे आपके पास लौटाकर न लाऊँ तो आप मेरे सारे जीवनभर मुझे दोषी ठहरा सकते है।’ 33 इसलिए अब मैं आपसे माँगता हूँ, और आप से प्रार्थना करता हूँ कि कृपया छोटे लड़के को अपने भाईयों के साथ लौट जाने दें और मैं यहाँ रूकूँगा और आपका दास होऊँगा। 34 मैं अपने पिता के पास लौट नहीं सकता यदि हमारे साथ छोटा भाई नहीं रहेगा। मैं इस बात से बहुत भयभीत हूँ कि मेरे पिता के साथ क्या घटेगा।”
यूसुफ अपने को प्रकट करता है कि वह कौन है
45 यूसुफ अपने को और अधिक न संभाल सका। वह वहाँ उपस्थित सभी लोगों के सामने हो पड़ा। यूसुफ ने कहा, “हर एक से कहो कि यहाँ से हट जाए।” इसलिए सभी लोग चले गये। केवल उसके भाई ही यूसुफ के साथ रह गए। तब यूसुफ ने उन्हें बताया कि वह कौन है। 2 यूसुफ रोता रहा, और फ़िरौन के महल के सभी मिस्री व्यक्तियों ने सुना। 3 यूसुफ ने अपने भाईयों से कहा, “मैं आप लोगों का भाई यूसुफ हूँ। क्या मेरे पिता सकुशल हैं?” किन्तु भाईयों ने उसको उत्तर नहीं दिया। वे डरे हुए तथा उलझन में थे।
4 इसलिए यूसुफ ने अपने भाईयों से फिर कहा, “मेरे पास आओ।” इसलिए यूसुफ के भाई निकट गए और यूसुफ ने उनसे कहा, “मैं आप लोगों का भाई यूसुफ हूँ। मैं वहीं हूँ जिसे मिस्रियों के हाथ आप लोगों ने दास के रूप में बेचा था। 5 अब परेशान न हों। आप लोग अपने किए हुए के लिए स्वयं भी पश्चाताप न करें। वह तो मेरे लिए परमेश्वर की योजना थी कि मैं यहाँ आऊँ। मैं यहाँ तुम लोगों का जीवन बचाने के लिए आया हूँ। 6 यह भयंकर भूखमरी का समय दो वर्ष ही अभी बीता है और अभी पाँच वर्ष बिना पौधे रोपने या उपज के आएँगे। 7 इसलिए परमेश्वर ने तुम लोगों से पहले मुझे यहाँ भेजा जिससे मैं इस देश में तुम लोगों को बचा सकूँ। 8 यह आप लोगों का दोष नहीं था कि मैं यहाँ भेजा गया। वह परमेश्वर की योजना थी। परमेश्वर ने मुझे फ़िरौन के पिता सदृश बनाया। ताकि मैं उसके सारे घर और सारे मिस्र का शासक रहूँ।”
इस्राएल मिस्र के लिए आमन्त्रित हुआ
9 यूसुफ ने कहा, “इसलिए जल्दी मेरे पिता के पास जाओ। मेरे पिता से कहो कि उसके पुत्र यूसुफ ने यह सन्देश भेजा है: ‘परमेश्वर ने मुझे पूरे मिस्र का शासक बनाया है। मेरे पास आइये। प्रतीक्षा न करें। अभी आएँ। 10 आप मेरे निकट गोशेन प्रदेश में रहेंगे। आपका, आपके पुत्रों का, आपके सभी जानवरों एवं झुण्डों का यहाँ स्वागत है। 11 भुखमरी के अगले पाँच वर्षों में मैं आपकी देखभाल करुँगा। इस प्रकार आपके और आपके परिवार की जो चीज़ें हैं उनसे आपको हाथ धोना नहीं पड़ेगा।’”
12 यूसुफ अपने भाईयों से बात करता रहा। उसने कहा, “अब आप लोग देखते हैं कि यह सचमुच मैं ही हूँ, और आप लोगों का भाई बिन्यामीन जानता है कि यह मैं हूँ। मैं आप लोगों का भाई आप लोगों से बात कर रहा हूँ। 13 इसलिए मेरे पिता से मेरी मिस्र की अत्याधिक सम्पत्ति के बारे में कहें। आप लोगों ने जो यहाँ देखा है उस हर एक चीज़ के बारे में मेरे पिता को बताएं। अब जल्दी करो और मेरे पिता को लेकर मेरे पास लौटो।” 14 तब यूसुफ ने अपने भाई बिन्यामीन को गले लगाया और हो पड़ा और बिन्यामीन भी हो पड़ा। 15 तब यूसुफ ने सभी भाईयों को चूमा और उनके लिए रो पड़ा। इसके बाद भाई उसके साथ बातें करने लगे।
16 फ़िरौन को पता लगा कि यूसुफ के भाई उसके पास आए हैं। यह खबर फ़िरौन के पूरे महल में फैल गई। फ़िरौन और उसके सेवक इस बारे में बहुत प्रसन्न हुए। 17 इसलिए फ़िरौन ने यूसुफ से कहा, “अपने भाईयों से कहो कि उन्हें जितना भोजन चाहिए, लें और कनान देश को लौट जाएं। 18 अपने भाईयों से कहो कि वे अपने पिता और अपने परिवारों को लेकर यहाँ मेरे पास आएं। मैं तुम्हें जीविका के लिए मिस्र में सबसे अच्छी भूमि दूँगा और तुम्हारा परिवार सबसे अच्छा भोजन करेगा जो हमारे पास यहाँ है।” 19 तब फ़िरौन ने कहा, “हमारी सबसे अच्छी गाड़ियों में से कुछ अपने भाईयों को दो। उन्हें कनान जाने और गाड़ियों में अपने पिता, स्त्रियों और बच्चों को यहाँ लाने को कहो। 20 उनकी कोई भी चीज़ यहाँ लाने की चिन्ता न करो। हम उन्हें मिस्र में जो कुछ सबसे अच्छा है, देंगे।”
21 इसलिए इस्राएल के पुत्रों ने यही किया। यूसुफ ने फ़िरौन के वचन के अनुसार अच्छी गाड़ियाँ दीं और यूसुफ ने यात्रा के लिए उन्हें भरपूर भोजन दिया। 22 यूसुफ ने हर एक भाई को एक एक जोड़ा सुन्दर वस्त्र दिया। किन्तु यूसुफ ने बिन्यामीन को पाँच जोड़े सुन्दर वस्त्र दिए और यूसुफ ने बिन्यामीन को तीन सौ चाँदी के सिक्के भी दिए। 23 यूसुफ ने अपने पिता को भी भेंटें भेजीं। उसने मिस्र से बहुत सी अच्छी चीज़ों से भरी बोरियों से लदे दस गधों को भेजा और उसने अपने पिता के लिए अन्न, रोटी और अन्य भोजन से लदी हुई दस गदहियों को उनकी वापसी यात्रा के लिए भेजा। 24 तब यूसुफ ने अपने भाईयों को जाने के लिए कहा। जब वे जाने को हुए थे यूसुफ ने उनसे कहा, “सीधे घर जाओ और रास्ते में लड़ना नहीं।”
25 इस प्रकार भाईयों ने मिस्र को छोड़ा और कनान देश में अपने पिता के पास गए। 26 भाईयों ने उससे कहा, “पिताजी यूसुफ अभी जीवित है और वह पूरे मिस्र देश का प्रशासक है।”
उनका पिता चकित हुआ। उसने उन पर विश्वास नहीं किया। 27 किन्तु यूसुफ ने जो बातें कही थीं, भाईयों ने हर एक बात अपने पिता से कही। तब याकूब ने उन गाड़ियों को देखा जिन्हें यूसुफ ने उसे मिस्र की वापसी यात्रा के लिए भेजा था। तब याकूब भाबुक हो गया और अत्यन्त प्रसन्न हुआ। 28 इस्राएल ने कहा, “अब मुझे विश्वास है कि मेरा पुत्र यूसुफ अभी जीवित है। मैं मरने से पहले उसे देखने जा रहा हूँ।”
परमेश्वर इस्राएल को विश्वास दिलाता है
46 इसलिए इस्राएल ने मिस्र की अपनी यात्रा प्रारम्भ की। पहले इस्राएल बेर्शेबा पहुँचा। वहाँ इस्राएल ने अपने पिता इसहाक के परमेश्वर की उपासना की। उसने बलि दी। 2 रात में परमेश्वर इस्राएल से सपने में बोला। परमेश्वर ने कहा, “याकूब, याकूब।”
और इस्राएल ने उत्तर दिया, “मैं यहाँ हूँ।”
3 तब यहोवा ने कहा, “मैं यहोवा हूँ तुम्हारे पिता का परमेश्वर। मिस्र जाने से न डरो। मिस्र में मैं तुम्हें महान राष्ट्र बनाऊँगा। 4 मैं तुम्हारे साथ मिस्र चलूँगा और मैं तुम्हें फिर मिस्र से बाहर निकाल लाऊँगा। तुम मिस्र में मरोगे। किन्तु यूसुफ तुम्हारे साथ रहेगा। जब तुम मरोगे तो वह स्वयं अपने हाथों से तुम्हारी आँखें बन्द करेगा।”
इस्राएल मिस्र को जाता है
5 तब याकूब ने बेर्शेबा छोड़ा और मिस्र तक यात्रा की। उसके पुत्र, अर्थात् इस्राएल के पुत्र अपने पिता, अपनी पत्नियों और अपने सभी बच्चों को मिस्र ले आए। उन्होंने फ़िरौन द्वारा भेजी गयी गाड़ियों में यात्रा की। 6 उनके पास उनके पशु और कनान देश में उनका अपना जो कुछ था, वह भी साथ था। इस प्रकार इस्राएल अपने सभी बच्चे और अपने परिवार के साथ मिस्र गया। 7 उसके साथ उसके पुत्र और पुत्रियाँ एवं पौत्र और पौत्रियाँ थीं। उसका सारा परिवार उसके साथ मिस्र को गया।
याकूब का परिवार (इस्राएल)
8 यह इस्राएल के उन पुत्रों और परिवारों के नाम हैं जो उसके साथ मिस्र गए:
रूबेन याकूब का पहला पुत्र था। 9 रूबेन के पुत्र थे: हनोक, पललू, हेस्रोन और कर्म्मी।
10 शिमोन के पुत्र: यमूएल, यामीन, ओहद, याकीन और सोहर। वहाँ शाऊल भी था। (शाऊल कनानी पत्नी से पैदा हुआ था।)
11 लेवी के पुत्र: गेर्शोन, कहात और मरारी।
12 यहूदा के पुत्र: एर, ओनान, शेला, पेरेस और जेरह। (एर और ओनान कनान में रहते समय मर गये थे।) पेरेस के पुत्र: हेब्रोन और हामूल।
13 इस्साकार के पुत्र: तोला, पुब्बा, योब और शिम्रोन।
14 जबूलून के पुत्र: सेरेद, एलोन और यहलेल।
15 रूबेन, शिमोन लेवी, इस्साकार और जबूलून और याकूब की पत्नी लिआ से उसकी पुत्री दीना भी थी। इस परिवार में तैंतीस व्यक्ति थे।
16 गाद के पुत्र: सिय्योन, हाग्गी, शूनी, एसबोन, एरी, अरोदी और अरेली।
17 आशेर के पुत्र: यिम्ना, यिश्वा, यिस्वी, बरीआ और उनकी बहन सेरह और बरीआ के पुत्र: हेबेर और मल्कीएल थे।
18 ये सभी याकूब की पत्नी की दासी जिल्पा से उसके पुत्र थे। इस परिवार में सोलह व्यक्ति थे।
19 याकूब के साथ उसकी पत्नी राहेल से पैदा हुआ पुत्र बिन्यामीन भी था। (यूसुफ भी राहेल से पैदा था, किन्तु वह पहले से ही मिस्र में था।)
20 मिस्र में यूसुफ के दो पुत्र थे, मनश्शे, एप्रैम। (यूसुफ की पत्नी ओन के याजक पोतीपेरा की पुत्री आसनत थी।)
21 बिन्यामीन के पुत्र: बेला, बेकेर, अश्बेल, गेरा, नामान, एही, रोश, हुप्पीम, मुप्पीम और आर्द।
22 वे याकूब की पत्नी राहेल से पैदा हुए उसके पुत्र थे। इस परिवार में चौदह व्यक्ति थे।
23 दान का पुत्र: हूशीम।
24 नप्ताली के पुत्र: यहसेल, गूनी, सेसेर शिल्लेम।
25 वे याकूब और बिल्हा के पुत्र थे। (बिल्हा राहेल की सेविका थी।) इस परिवार में सात व्यक्ति थे।
26 इस प्रकार याकूब का परिवार मिस्र में पहुँचा। उनमें छियासठ उसके सीधे वंशज थे। (इस संख्या में याकूब के पुत्रों की पत्नियाँ सम्मिलित नहीं थीं।) 27 यूसुफ के भी दो पुत्र थे। वे मिस्र में पैदा हुए थे। इस प्रकार मिस्र में याकूब के परिवार में सत्तर व्यक्ति थे।
इस्राएल मिस्र पहुँचता है
28 याकूब ने पहले यहूदा को यूसुफ के पास भेजा। यहूदा गोशेन प्रदेश में यूसुफ के पास गया। जब याकूब और उसके लोग उस प्रदेश में गए। 29 यूसुफ को पता लगा कि उसका पिता निकट आ रहा है। इसलिए यूसुफ ने अपना रथ तैयार कराया और अपने पिता इस्राएल से गीशोन में मिलने चला। जब यूसुफ ने अपने पिता को देखा तब वह उसके गले से लिपट गया और देर तक रोता रहा।
30 तब इस्राएल ने यूसुफ से कहा, “अब मैं शान्ति से मर सकता हूँ। मैंने तुम्हारा मुँह देख लिया और मैं जानता हूँ कि तुम अभी जीवित हो।”
31 यूसुफ ने अपने भाईयों और अपने पिता के परिवार से कहा, “मैं जाऊँगा और फ़िरौन से कहूँगा कि मेरे पिता यहाँ आ गए हैं। मैं फिरौन से कहूँगा, ‘मेरे भाईयों और मेरे पिता के परिवार ने कनान देश छोड़ दिया है और यहाँ मेरे पास आ गए हैं। 32 यह चरवाहों का परिवार है। उन्होंने सदैव पशु और रेवड़े रखी हैं। वे अपने सभी जानवर और उनका जो कुछ अपना है उसे अपने साथ लाएं हैं।’ 33 जब फ़िरौन आप लोगों को बुलाएँगे और आप लोगों से पूछेंगे कि, ‘आप लोग क्या काम करते हैं?’ 34 आप लोग उनसे कहना, ‘हम लोग चरवाहे हैं। हम लोगों ने पूरा जीवन अपने जानवरों की देखभाल में बिताया है। हम लोगों से पहले हमारे पूर्वज भी ऐसे ही रहे।’ तब फ़िरौन तुम लोगों को गीशोन प्रदेश में रहने की आज्ञा दे देगा। मिस्री लोग चरवाहों को पसन्द नहीं करते, इसलिए अच्छा यही होगा कि आप लोग गीशोन में ही ठहरें।”
इस्राएल गोशेन में बसता है
47 यूसुफ फ़िरौन के पास गया और उसने कहा, “मेरे पिता, मेरे भाई और उनके सब परिवार यहाँ आ गए हैं। वे अपने सभी जानवर तथा कनान में उनका अपना जो कुछ था, उसके साथ हैं। इस समय वे गोशेन प्रदेश में हैं।” 2 यूसुफ ने अपने भाईयों में से पाँच को फ़िरौन के सामने अपने साथ रहने के लिए चुना।
3 फ़िरौन ने भाईयों से पूछा, “तुम लोग क्या काम करते हो?”
भाईयों ने फ़िरौन से कहा, “मान्यवर, हम लोग चरवाहे हैं। हम लोगों से पहले हमारे पूर्वज भी चरवाहे थे।” 4 उन्होंने फ़िरौन से कहा, “कनान में भूखमरी का यह समय बहुत बुरा है। हम लोगों के जानवरों के लिए घास वाला कोई भी खेत बचा नहीं रह गया है। इसलिए हम लोग इस देश में रहने आए हैं। आप से हम लोग प्रार्थना करते हैं कि आप कृपा करके हम लोगों को गोशेन प्रदेश में रहने दें।”
5 तब फ़िरौन ने यूसुफ से कहा, “तुम्हारे पिता और तुम्हारे भाई तुम्हारे पास आए हैं। 6 तुम मिस्र में कोई भी स्थान उनके रहने के लिए चुन सकते हो। अपने पिता और अपने भाईयों को सबसे अच्छी भूमि दो। उन्हें गोशेन प्रदेश में रहने दो और यदि ये कुशल चरवाहे हैं, तो वे मेरे जानवरों की भी देखभाल कर सकते हैं।”
7 तब यूसुफ ने अपने पिता याकूब को अन्दर फ़िरौन के सामने बुलाया। याकूब ने फिरौन को आशीर्वाद दिया।
8 तब फ़िरौन ने याकूब से पूछा, “आपकी उम्र क्या है?”
9 याकूब ने फ़िरौन से कहा, “बहुत से कष्टों के साथ मेरा छोटा जीवन रहा। मैं केवल एक सौ तीस वर्ष जीवन बिताया हूँ। मेरे पिता और उनके पिता मुझसे अधिक उम्र तक जीवित रहे।”
10 याकूब ने फ़िरौन को आशीर्वाद दिया। तब फिरौन से बिदा लेकर चल दिया।
11 यूसुफ ने फ़िरौन का आदेश माना। उसने अपने पिता और भाईयों को मिस्र में भूमि दी। यह रामसेस नगर के निकट मिस्र में सबसे अच्छी भूमि थी। 12 यूसुफ ने अपने पिता, भाईयों और उनके अपने लोगों को जो भोजन उन्हें आवश्यक था, दिया।
यूसुफ फ़िरौन के लिए भूमि खरीदता है
13 भूखमरी का समय और भी अधिक बुरा हो गया। देश में कहीं भी भोजन न रहा। इस बुरे समय के कारण मिस्र और कनान बहुत गरीब हो गए। 14 देश में लोग अधिक से अधिक अन्न खरीदने लगे। यूसुफ ने धन बचाया और उसे फ़िरौन के महल में लाया। 15 कुछ समय बाद मिस्र और कनान में लोगों के पास पैसा नहीं रहा। उन्होंने अपना सारा धन अन्न खरीदने में खर्च कर दिया। इसलिए लोग यूसुफ के पास गए और बोले, “कृपा कर हमें भोजन दें। हम लोगों का धन समाप्त हो गया। यदि हम लोग नहीं खाएँगे तो आपके देखते—देखते हम मर जायेंगे।”
16 लेकिन यूसुफ ने उत्तर दिया, “अपने पशु मुझे दो और मैं तुम लोगों को भोजन दूँगा।” 17 इसलिए लोग अपने पशु, घोड़े और अन्य सभी जानवरों को भोजन खरीदने के लिए उपयोग में लाने लगे और उस वर्ष यूसुफ ने उनके जानवरों को लिया तथा भोजन दिया।
18 किन्तु दूसरे वर्ष लोगों के पास जानवर नहीं रह गए और भोजन खरीदने के लिए कुछ भी न रहा। इसलिए लोग यूसुफ के पास गए और बोले, “आप जानते हैं कि हम लोगों के पास धन नहीं बचा है और हमारे सभी जानवर आपके हो गये हैं। इसलिए हम लोगों के पास कुछ नहीं बचा है। वह बचा है केवल, जो आप देखते हैं, हमारा शरीर और हमारी भूमि। 19 आपके देखते हुए ही हम निश्चय ही मर जाएँगे। किन्तु यदि आप हमें भोजन देते हैं तो हम फ़िरौन को अपनी भूमि देंगे और उसके दास हो जाएँगे। हमें बीज दो जिन्हें हम बो सकें। तब हम लोग जीवित रहेंगे और मरेंगे नहीं और भूमि हम लोगों के लिए फिर अन्न उगाएगी।”
20 इसलिए यूसुफ ने मिस्र की सारी भूमि फ़िरौन के लिए खरीद ली। मिस्र के सभी लोगों ने अपने खेतों को यूसुफ के हाथ बेच दिया। उन्होंने यह इसलिए किया क्योंकि वे बहुत भूखे थे। 21 और सभी लोग फ़िरौन के दास हो गए। मिस्र में सर्वत्र लोग फ़िरौन के दास थे। 22 एक मात्र वही भूमि यूसुफ ने नहीं खरीदी जो याजकों के अधिकार में थी। याजकों को भूमि बेचने की आवश्कता नहीं थी। क्योंकि फ़िरौन उनके काम के लिए उन्हें वेतन देता था। इसलिए उन्होंने इस धन को खाने के लिए भोजन खरीदने में खर्च किया।
23 यूसुफ ने लोगों से कहा, “अब मैंने तुम लोगों को और तुम्हारी भूमि को फ़िरौन के लिए खरीद लिया है। इसलिए मैं तुमको बीज दूँगा और तुम लोग अपने खेतों में पौधे लगा सकते हो। 24 फसल काटने के समय तुम लोग फसल का पाँचवाँ हिस्सा फ़िरौन को अवश्य देना। तुम लोग अपने लिए पाँच में से चार हिस्से रख सकते हो। तुम लोग उस बीज को जिसे भोजन और बोने के लिए रखोगे उसे दूसरे वर्ष उपयोग में ला सकोगे। अब तुम अपने परिवारों और बच्चों को खिला सकते हो।”
25 लोगों ने कहा, “आपने हम लोगों का जीवन बचा लिया है। हम लोग आपके और फ़िरौन के दास होने में प्रसन्न हैं।”
26 इसलिए यूसुफ ने उस समय देश में एक नियम बनाया और वह नियम अब तक चला आ रहा है। नियम के अनुसार भूमि से हर एक उपज का पाँचवाँ हिस्सा फ़िरौन का है। फ़िरौन सारी भूमि का स्वामी है। केवल वही भूमि उसकी नहीं है जो याजकों की है।
“मुझे मिस्र में मत दफनाना”
27 इस्राएल (याकूब) मिस्र में रहा। वह गोशेन प्रदेश में रहा। उसका परिवार बढ़ा और बहुत हो गया। उन्होंने मिस्र में उस भूमि को पाया और अच्छा जीवन बिताया।
28 याकूब मिस्र में सत्रह वर्ष रहा। इस प्रकार याकूब एक सौ सैंतालीस वर्ष का हो गया। 29 वह समय आ गया जब इस्राएल (याकूब) समझ गया कि वह जल्दी ही मरेगा, इसलिए उसने अपने पुत्र यूसुफ को अपने पास बुलाया। उसने कहा, “यदि तुम मुझसे प्रेम करते हो तो तुम अपने हाथ मेरी जांघ के नीचे रख कर मुझे वचन दो।[a] वचन दो कि तुम, जो मैं कहूँगा करोगे और तुम मेरे प्रति सच्चे रहोगे। जब मैं मरूँ तो मुझे मिस्र में मत दफनाना। 30 उसी जगह मुझे दफनाना जिस जगह मेरे पूर्वज दफनाए गए हैं। मुझे मिस्र से बाहर ले जाना और मेरे परिवार के कब्रिस्तान में दफनाना।”
यूसुफ ने उत्तर दिया, “मैं वचन देता हूँ कि वही करूँगा जो आप कहते हैं।”
31 तब याकूब ने कहा, “मुझसे एक प्रतिज्ञा करो” और यूसुफ ने उससे प्रतिज्ञा की कि वह इसे पूरा करेगा। तब इस्राएल (याकूब) ने अपना सिर पलंग पर पीछे को रखा।[b]
1: जब यूसुफ़ ने अपने बाप से कहा, “ऐ मेरे बाप! मैंने स्वप्न में ग्यारह सितारे देखे और सूर्य और चाँद। मैंने उन्हें देखा कि वे मुझे सजदा कर रहे हैं।”
2: निश्चय ही यूसुफ़ और उसके भाइयों में सवाल करनेवालों के लिए निशानियाँ हैं।
3: जबकि उन्होंने कहा, “यूसुफ़ और उसका भाई हमारे बाप को हमसे अधिक प्रिय है, हालाँकि हम एक पूरा जत्था हैं। वास्तव में हमारे बाप स्पष्टतः बहक गए हैं।
4: यूसुफ़ को मार डालो या उसे किसी भूभाग में फेंक आओ, ताकि तुम्हारे बाप का ध्यान केवल तुम्हारी ही ओर हो जाए। इसके पश्चात तुम फिर नेक बन जाना।”
5: उनमें से एक बोलनेवाला बोल पड़ा, “यूसुफ़ की हत्या न करो, यदि तुम्हें कुछ करना ही है तो उसे किसी कुएँ की तह में डाल दो। कोई राहगीर उसे उठा लेगा।”
6: उन्होंने कहा, “ऐ हमारे बाप! आपको क्या हो गया है कि यूसुफ़ के मामले में आप हमपर भरोसा नहीं करते, हालाँकि हम तो उसके हितैषी हैं?
7: मिस्र के जिस व्यक्ति ने उसे ख़रीदा, उसने अपनी स्त्री से कहा, “इसको अच्छी तरह रखना। बहुत सम्भव है कि यह हमारे काम आए या हम इसे बेटा बना लें।” इस प्रकार हमने उस भूभाग में यूसुफ़ के क़दम जमाने की राह निकाली (ताकि उसे प्रतिष्ठा प्रदान करें) और ताकि मामलों और बातों के परिणाम से हम उसे अवगत कराएँ। अल्लाह तो अपना काम करके रहता है, किन्तु अधिकतर लोग जानते नहीं।
8: यूसुफ़! इस मामले को जाने दे और स्त्री तू अपने गुनाह की माफ़ी माँग। निस्संदेह ख़ता तेरी ही है।”
9: उसने जब उनकी मक्कारी की बातें सुनीं तो उन्हें बुला भेजा और उनमें से हरेक के लिए आसन सुसज्जित किया और उनमें से हरेक को एक छुरी दी। उसने (यूसुफ़ से) कहा, “इनके सामने आ जाओ।” फिर जब स्त्रियों ने उसे देखा तो वे उसकी बड़ाई से दंग रह गईं। उन्होंने अपने हाथ घायल कर लिए और कहने लगीं, “अल्लाह की पनाह! यह कोई मनुष्य नहीं। यह तो कोई प्रतिष्ठित फ़रिश्ता है।”
10: इससे पहले तुम्हारे पास यूसुफ़ खुले प्रमाण लेकर आ चुके हैं, किन्तु जो कुछ वे लेकर तुम्हारे पास आए थे, उसके बारे में तुम बराबर सन्देह में पड़े रहे, यहाँ तक कि जब उनकी मृत्यु हो गई तो तुम कहने लगे, “अल्लाह उनके पश्चात कदापि कोई रसूल न भेजेगा।” इसी प्रकार अल्लाह उसे गुमराही में डाल देता है जो मर्यादाहीन, सन्देहों में पड़नेवाला हो। –
11: उन दोनों में से जिसके विषय में उसने समझा था कि वह रिहा हो जाएगा, उससे कहा, “अपने स्वामी से मेरी चर्चा करना।” किन्तु शैतान ने अपने स्वामी से उसकी चर्चा करना भुलवा दिया। अतः वह (यूसुफ़) कई वर्ष तक कारागार ही में रहा।
12: इतने में दोनों में से जो रिहा हो गया था और एक अर्से के बाद उसे याद आया तो वह बोला, “मैं इसका अर्थ तुम्हें बताता हूँ। ज़रा मुझे (यूसुफ़ के पास) भेज दीजिए।”
13: “यूसुफ़, ऐ सत्यवान! हमें इसका अर्थ बता कि सात मोटी गायें हैं, जिन्हें सात दुबली गायें खा रही हैं और सात हरी बालें हैं और दूसरी (सात) सूखी, ताकि मैं लोगों के पास लौटकर जाऊँ कि वे जान लें।” –
14: उसने कहा, “तुम स्त्रियों का क्या हाल था, जब तुमने यूसुफ़ को रिझाने की चेष्टा की थी?” उन्होंने कहा, “पाक है अल्लाह! हम उसमें कोई बुराई नहीं जानते हैं।” अज़ीज़ की स्त्री बोल उठी, “अब तो सत्य प्रकट हो गया है। मैंने ही उसे रिझाना चाहा था। वह तो बिलकुल सच्चा है।”
15: इस प्रकार हमने यूसुफ़ को उस भू-भाग में अधिकार प्रदान किया कि वह उसमें जहाँ चाहे अपनी जगह बनाए। हम जिसे चाहते हैं उसे अपनी दया का पात्र बनाते हैं। उत्तमकारों का बदला हम अकारथ नहीं जाने देते।
16: फिर ऐसा हुआ कि यूसुफ़ के भाई आए और उसके सामने उपस्थित हुए, उसने तो उन्हें पहचान लिया, किन्तु वे उससे अपरिचित रहे।
17: और जब उन्होंने यूसुफ़ के यहाँ प्रवेश किया तो उसने अपने भाई को अपने पास जगह दी और कहा, “मैं तेरा भाई हूँ। जो कुछ ये करते रहे हैं, अब तू उसपर दुखी न हो।” (
18: फिर उसके भाई की ख़ुरजी से पहले उनकी ख़ुरजियाँ देखनी शुरू कीं; फिर उसके भाई की ख़ुरजी से उसे बरामद कर लिया। इस प्रकार हमने यूसुफ़ के लिए उपाय किया। वह शाही क़ानून के अनुसार अपने भाई को प्राप्त नहीं कर सकता था। बल्कि अल्लाह ही की इच्छा लागू है। हम जिसको चाहें उसके दर्जे ऊँचे कर दें। और प्रत्येक ज्ञानवान से ऊपर एक ज्ञानवान मौजूद है। यह चोरी करता है तो चोरी तो इससे पहले इसका एक भाई भी कर चुका है।19″ किन्तु यूसुफ़ ने इसे अपने जी ही में रखा और उनपर प्रकट नहीं किया। उसने कहा, “मक़ाम की दृष्टि से तुम अत्यन्त बुरे हो। जो कुछ तुम बताते हो, अल्लाह को उसका पूरा ज्ञान है।”
20: तो जब वे उससे निराश हो गए तो परामर्श करने के लिए अलग जा बैठे। उनमें जो बड़ा था, वह कहने लगा, “क्या तुम जानते नहीं कि तुम्हारा बाप अल्लाह के नाम पर तुमसे वचन ले चुका है और उसको जो इससे पहले यूसुफ़ के मामले में तुमसे क़सूर हो चुका है? मैं तो इस भू-भाग से कदापि टलने का नहीं जब तक कि मेरे बाप मुझे अनुमति न दें या अल्लाह ही मेरे हक़ में कोई फ़ैसला कर दे। और वही सबसे अच्छा फ़ैसला करनेवाला है।
21: उसने उनकी ओर से मुख फेर लिया और कहने लगा, “हाय अफ़सोस, यूसुफ़ की जुदाई पर!” और ग़म के मारे उसकी आँखें सफ़ेद पड़ गईं और वह घुटा जा रहा था।
22: और हमने उसे (इबराहीम को) इसहाक़ और याक़ूब दिए; हर एक को मार्ग दिखाया – और नूह को हमने इससे पहले मार्ग दिखाया था, और उसकी सन्तान में दाऊद, सुलैमान, अय्यूब, यूसुफ़, मूसा और हारून को भी – और इस प्रकार हम शुभ-सुन्दर कर्म करनेवालों को बदला देते हैं –
23: उन्होंने कहा, “अल्लाह की क़सम! आप तो यूसुफ़ ही की याद में लगे रहेंगे, यहाँ तक कि घुलकर रहेंगे या प्राण ही त्याग देंगे।”
24: ऐ मेरे बेटो! जाओ और यूसुफ़ और उसके भाई की टोह लगाओ और अल्लाह की सदयता से निराश न हो। अल्लाह की सदयता से तो केवल कुफ़्र करनेवाले ही निराश होते हैं।” (87)
25: उसने कहा, “क्या तुम्हें यह भी मालूम है कि जब तुम आवेग के वशीभूत थे तो यूसुफ़ और उसके भाई के साथ तुमने क्या किया था?”
26: वे बोल पड़े, “क्या यूसुफ़ आप ही हैं?” उसने कहा, “मैं ही यूसुफ़ हूँ और यह मेरा भाई है। अल्लाह ने हमपर उपकार किया है। सच तो यह है कि जो कोई डर रखे और धैर्य से काम ले तो अल्लाह भी उत्तमकारों का बदला अकारथ नहीं करता।”
और यदि तुम उस समय देख सकते, जब वे आग के निकट खड़े किए जाएँगे और कहेंगे, “काश! क्या ही अच्छा होता कि हम फिर लौटा दिए जाएँ (कि मानें) और अपने रब की आयतों को न झुठलाएँ और माननेवालों में हो जाएँ।” (27)
कुछ नहीं, बल्कि जो कुछ वे पहले छिपाया करते थे, वह उनके सामने आ गया। और यदि वे लौटा भी दिए जाएँ, तो फिर वही कुछ करने लगेंगे जिससे उन्हें रोका गया था। निश्चय ही वे झूठे हैं। (28)
और वे कहते हैं, “जो कुछ है बस यही हमारा सांसारिक जीवन है; हम कोई फिर उठाए जानेवाले नहीं हैं।” (29)
और यदि तुम देख सकते जब वे अपने रब के सामने खड़े किेए जाएँगे! वह कहेगा, “क्या यह यथार्थ नहीं है?” कहेंगे, “क्यों नहीं, हमारे रब की क़सम!” वह कहेगा, “अच्छा तो उस इनकार के बदले जो तुम करते रहे हो, यातना का मज़ा चखो।” (30)
वे लोग घाटे में पड़े, जिन्होंने अल्लाह से मिलने को झुठलाया, यहाँ तक कि जब अचानक उनपर वह घड़ी आ जाएगी तो वे कहेंगे, “हाय! अफ़सोस, उस कोताही पर जो इसके विषय में हमसे हुई।” और हाल यह होगा कि वे अपने बोझ अपनी पीठों पर उठाए होंगे। देखो, कितना बुरा बोझ है जो ये उठाए हुए हैं! (31)
सांसारिक जीवन तो एक खेल और तमाशे (ग़फ़लत) के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, जबकि आख़िरत का घर उन लोगों के लिए अच्छा है, जो डर रखते हैं। तो क्या तुम बुद्धि से काम नहीं लेते? (32)
हमें मालूम है, जो कुछ वे कहते हैं उससे तुम्हें दुख पहुँचता है। तो वे वास्तव में तुम्हें नहीं झुठलाते, बल्कि उन अत्याचारियों को तो अल्लाह की आयतों से इनकार है। (33)
तुमसे पहले भी बहुत-से रसूल झुठलाए जा चुके हैं, तो वे अपने झुठलाए जाने और कष्ट पहुँचाए जाने पर धैर्य से काम लेते रहे, यहाँ तक कि उन्हें हमारी सहायता पहुँच गई। कोई नहीं जो अल्लाह की बातों को बदल सके। तुम्हारे पास तो रसूलों की कुछ ख़बरें पहुँच ही चुकी हैं। (34)
और यदि उनकी विमुखता तुम्हारे लिए असहनीय है, तो यदि तुमसे हो सके कि धरती में कोई सुरंग या आकाश में कोई सीढ़ी ढूँढ निकालो और उनके पास कोई निशानी ले आओ, तो (ऐसा कर देखो), यदि अल्लाह चाहता तो उन सबको सीधे मार्ग पर इकट्ठा कर देता। अतः तुम उजड्ड और नादान न बनना। (35)
मानते तो वही लोग हैं जो सुनते हैं; रहे मुर्दे, तो अल्लाह उन्हें (क़ियामत के दिन) उठा खड़ा करेगा; फिर वे उसी की ओर पलटेंगे। (36)
वे यह भी कहते हैं, “उस (नबी) पर उसके रब की ओर से कोई निशानी क्यों नहीं उतारी गई?” कह दो, “अल्लाह को तो इसकी सामर्थ्य प्राप्त है कि कोई निशानी उतार दे; परन्तु उनमें से अधिकतर लोग नहीं जानते।” (37)
धरती में चलने-फिरनेवाला कोई भी प्राणी हो या अपने दो परों से उड़नेवाला कोई पक्षी, ये सब तुम्हारी ही तरह के गिरोह हैं। हमने किताब में कोई भी चीज़ नहीं छोड़ी है। फिर वे अपने रब की ओर इकट्ठे किए जाएँगे। (38)
जिन लोगों ने हमारी आयतों को झुठलाया, वे बहरे और गूँगे हैं, अँधेरों में पड़े हुए हैं। अल्लाह जिसे चाहे भटकने दे और जिसे चाहे सीधे मार्ग पर लगा दे। (39)
कहो, “क्या तुमने यह भी सोचा कि यदि तुमपर अल्लाह की यातना आ पड़े या वह घड़ी तुम्हारे सामने आ जाए, तो क्या अल्लाह के सिवा किसी और को पुकारोगे? बोलो, यदि तुम सच्चे हो? (40)
बल्कि तुम उसी को पुकारते हो – फिर जिसके लिए तुम उसे पुकारते हो, वह चाहता है तो उसे दूर भी कर देता है – और उन्हें भूल जाते हो जिन्हें साझीदार ठहराते हो।” (41)
तुमसे पहले कितने ही समुदायों की ओर हमने रसूल भेजे फिर उन्हें तंगियों और मुसीबतों में डाला, ताकि वे विनम्र हों। (42)
जब हमारी ओर से उनपर सख़्ती आई तो फिर क्यों न वे विनम्र हुए? परन्तु उनके हृदय तो कठोर हो गए थे और जो कुछ वे करते थे शैतान ने उसे उनके लिए मोहक बना दिया। (43)
फिर जब उसे उन्होंने भुला दिया जो उन्हें याद दिलाई गई थी, तो हमने उनपर हर चीज़ के दरवाज़े खोल दिए; यहाँ तक कि जो कुछ उन्हें मिला था, जब वे उसमें मग्न हो गए तो अचानक हमने उन्हें पकड़ लिया, तो क्या देखते हैं कि वे बिल्कुल निराश होकर रह गए। (44)
इस प्रकार अत्याचारी लोगों की जड़ काटकर रख दी गई। प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है, जो सारे संसार का रब है। (45)
कहो, “क्या तुमने यह भी सोचा कि यदि अल्लाह तुम्हारे सुनने की और तुम्हारी देखने की शक्ति छीन ले और तुम्हारे दिलों पर ठप्पा लगा दे, तो अल्लाह के सिवा कौन पूज्य है जो तुम्हें ये चीज़ें लाकर दे?” देखो, किस प्रकार हम तरह-तरह से अपनी निशानियाँ बयान करते हैं! फिर भी वे किनारा ही खींचते जाते हैं। (46)
कहो, “क्या तुमने यह भी सोचा कि यदि तुमपर अचानक या प्रत्यक्षतः अल्लाह की यातना आ जाए, तो क्या अत्याचारी लोगों के सिवा कोई और विनष्ट होगा?” (47)
हम रसूलों को केवल शुभ-सूचना देनेवाले और सचेतकर्ता बनाकर भेजते रहे हैं। फिर जो ईमान लाए और सुधर जाए, तो ऐसे लोगों के लिए न कोई भय है और न वे कभी दुखी होंगे। (48)
रहे वे लोग, जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया, उन्हें यातना पहुँचकर रहेगी, क्योंकि वे अवज्ञा करते रहे हैं। (49)
कह दो, “मैं तुमसे यह नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने हैं, और न मैं परोक्ष का ज्ञान रखता हूँ, और न मैं तुमसे कहता हूँ कि मैं कोई फ़रिश्ता हूँ। मैं तो बस उसी का अनुपालन करता हूँ जो मेरी ओर वह्य की जाती है।” कहो, “क्या अंधा और आँखोंवाला दोनों बराबर हो जाएँगे? क्या तुम सोच-विचार से काम नहीं लेते?” (50)
और तुम इसके द्वारा उन लोगों को सचेत कर दो, जिन्हें इस बात का भय है कि वे अपने रब के पास इस हाल में इकट्ठा किए जाएँगे कि उसके सिवा न तो उसका कोई समर्थक होगा और न कोई सिफ़ारिश करनेवाला, ताकि वे बचें। (51)
और जो लोग अपने रब को उसकी ख़ुशी की चाह में प्रातः और सायंकाल पुकारते रहते हैं, ऐसे लोगों को दूर न करना। उनके हिसाब की तुमपर कुछ भी ज़िम्मेदारी नहीं है और न तुम्हारे हिसाब की उनपर कोई ज़िम्मेदारी है कि तुम उन्हें दूर करो और फिर हो जाओ अत्याचारियों में से। (52)
और इसी प्रकार हमने इनमें से एक को दूसरे के द्वारा आज़माइश में डाला, ताकि वे कहें, “क्या यही वे लोग हैं, जिनपर अल्लाह ने हममें से चुनकर एहसान किया है ?” – क्या अल्लाह कृतज्ञ लोगों से भली-भाँति परिचित नहीं है? (53)
और जब तुम्हारे पास वे लोग आएँ, जो हमारी आयतों को मानते हैं, तो कहो, “सलाम हो तुमपर! तुम्हारे रब ने दयालुता को अपने ऊपर अनिवार्य कर लिया है कि तुममें से जो कोई नासमझी से कोई बुराई कर बैठे, फिर उसके बाद पलट आए और अपना सुधार कर ले तो यह है कि वह बड़ा क्षमाशील, दयावान है।” (54)
इसी प्रकार हम अपनी आयतें खोल-खोलकर बयान करते हैं (ताकि तुम हर ज़रूरी बात जान लो) और इसलिए कि अपराधियों का मार्ग स्पष्ट हो जाए। (55)
कह दो, “तुम लोग अल्लाह से हटकर जिन्हें पुकारते हो, उनकी बन्दगी करने से मुझे रोका गया है।” कहो, “मैं तुम्हारी इच्छाओं का अनुपालन नहीं करता, क्योंकि तब तो मैं मार्ग से भटक गया और मार्ग पानेवालों में से न रहा।” (56)
कह दो, “मैं अपने रब की ओर से एक स्पष्ट प्रमाण पर क़ायम हूँ और तुमने उसे झुठला दिया है। जिस चीज़ के लिए तुम जल्दी मचा रहे हो, वह कोई मेरे पास तो नहीं है। निर्णय का सारा अधिकार अल्लाह ही को है, वही सच्ची बात बयान करता है और वही सबसे अच्छा निर्णायक है।” (57)
कह दो, “जिस चीज़ की तुम्हें जल्दी पड़ी हुई है, यदि कहीं वह चीज़ मेरे पास होती तो मेरे और तुम्हारे बीच कभी का फ़ैसला हो चुका होता। और अल्लाह अत्याचारियों को भली-भाँति जानता है।” (58)
उसी के पास परोक्ष की कुंजियाँ हैं, जिन्हें उसके सिवा कोई नहीं जानता। जल और थल में जो कुछ है, उसे वह जानता है। और जो पत्ता भी गिरता है, उसे वह निश्चय ही जानता है। और धरती के अँधेरों में कोई भी दाना हो और कोई भी आर्द्र (गीली) और शुष्क (सूखी) चीज़ हो, वह निश्चय ही एक स्पष्ट किताब में मौजूद है। (59)
और वही है जो रात को तुम्हें मौत देता है और दिन में जो कुछ तुमने किया उसे जानता है। फिर वह इसलिए तुम्हें उठाता है, ताकि निश्चित अवधि पूरी हो जाए; फिर उसी की ओर तुम्हें लौटना है, फिर वह तुम्हें बता देगा जो कुछ तुम करते रहे हो। (60)
और वही अपने बन्दों पर पूरा-पूरा क़ाबू रखनेवाला है और वह तुमपर निगरानी करनेवाले को नियुक्त करके भेजता है, यहाँ तक कि जब तुममें से किसी की मृत्यु आ जाती है, तो हमारे भेजे हुए कार्यकर्त्ता उसे अपने क़ब्ज़े में कर लेते हैं और वे कोई कोताही नहीं करते। (61)
फिर सब अल्लाह की ओर, जो उनका वास्तविक स्वामी है, लौट जाएँगे। जान लो, निर्णय का अधिकार उसी को है और वह बहुत जल्द हिसाब लेनेवाला है।(62) Share
कहो, “कौन है जो थल और जल के अँधेरों से तुम्हे छुटकारा देता है, जिसे तुम गिड़गिड़ाते हुए और चुपके-चुपके पुकारने लगते हो कि यदि हमें इससे बचा लिया तो हम अवश्य कृतज्ञ हो जाएँगे?”(63)
कहो, “अल्लाह तुम्हें इनसे और हरेक बेचैनी और पीड़ा से छुटकारा देता है, लेकिन फिर तुम उसका साझीदार ठहराने लगते हो।” (64)
कहो, “वह इसकी सामर्थ्य रखता है कि तुमपर तुम्हारे ऊपर से या तुम्हारे पैरों के नीचे से कोई यातना भेज दे या तुम्हें टोलियों में बाँटकर परस्पर भिड़ा दे और एक को दूसरे की लड़ाई का मज़ा चखाए।” देखो, हम आयतों को कैसे, तरह-तरह से, बयान करते हैं, ताकि वे समझें। (65)
तुम्हारी क़ौम ने तो उसे झुठला दिया, हालाँकि वह सत्य है। कह दो, “मैं तुमपर कोई संरक्षक नियुक्त नहीं हूँ। (66)
हर ख़बर का एक निश्चित समय है और शीघ्र ही तुम्हें ज्ञात हो जाएगा।” (67)
और जब तुम उन लोगों को देखो, जो हमारी आयतों पर नुक्ताचीनी करने में लगे हुए हैं, तो उनसे मुँह फेर लो, ताकि वे किसी दूसरी बात में लग जाएँ। और यदि कभी शैतान तुम्हें भुलावे में डाल दे, तो याद आ जाने के बाद उन अत्याचारियों के पास न बैठो। (68)
उनके हिसाब के प्रति तो उन लोगों पर कुछ भी ज़िम्मेदारी नहीं, जो डर रखते हैं। यदि है तो बस याद दिलाने की; ताकि वे डरें। (69)
छोड़ो उन लोगों को, जिन्होंने अपने धर्म को खेल और तमाशा बना लिया है और उन्हें सांसारिक जीवन ने धोखे में डाल रखा है। और इसके द्वारा उन्हें नसीहत करते रहो कि कहीं ऐसा न हो कि कोई अपनी कमाई के कारण तबाही में पड़ जाए। अल्लाह से हटकर कोई भी नहीं, जो उसका समर्थक और सिफ़ारिश करनेवाला हो सके और यदि वह छुटकारा पाने के लिए बदले के रूप में हर सम्भव चीज़ देने लगे, तो भी वह उससे न लिया जाए। ऐसे ही लोग हैं, जो अपनी कमाई के कारण तबाही में पड़ गए। उनके लिए पीने को खौलता हुआ पानी है और दुखद यातना भी; क्योंकि वे इनकार करते रहे थे। (70)
कहो, “क्या हम अल्लाह को छोड़कर उसे पुकारने लग जाएँ जो न तो हमें लाभ पहुँचा सके और न हमें हानि पहुँचा सके और हम उलटे पाँव फिर जाएँ, जबकि अल्लाह ने हमें मार्ग पर लगा दिया है? – उस व्यक्ति की तरह जिसे शैतानों ने धरती पर भटका दिया हो और वह हैरान होकर रह गया हो। उसके कुछ साथी हों, जो उसे मार्ग की ओर बुला रहे हों कि हमारे पास चला आ!” कह दो, “मार्गदर्शन केवल अल्लाह का मार्गदर्शन है और हमें इसी बात का आदेश हुआ है कि हम सारे संसार के स्वामी को समर्पित हो जाएँ।” (71)
और यह कि “नमाज़ क़ायम करो और उसका डर रखो। वही है, जिसके पास तुम इकट्ठे किए जाओगे, (72)
“और वही है जिसने आकाशों और धरती को हक़ के साथ पैदा किया। और जिस समय वह किसी चीज़ को कहे, ‘हो जा’, तो उसी समय वह हो जाती है। उसकी बात सर्वथा सत्य है और जिस दिन ‘सूर’ (नरसिंघा) में फूँक मारी जाएगी, राज्य उसी का होगा। वह सभी छिपी और खुली चीज़ का जाननेवाला है, और वही तत्वदर्शी, ख़बर रखनेवाला है।”(73)
और याद करो, जब इबराहीम ने अपने बाप आज़र से कहा था, “क्या तुम मूर्तियों को पूज्य बनाते हो? मैं तो तुम्हें और तुम्हारी क़ौम को खुली गुमराही में पड़ा देख रहा हूँ।” (74)
और इस प्रकार हम इबराहीम को आकाशों और धरती का राज्य दिखाने लगे (ताकि उसके ज्ञान का विस्तार हो) और इसलिए कि उसे विश्वास हो। (75)
अतएवः जब रात उसपर छा गई, तो उसने एक तारा देखा। उसने कहा, “इसे मेरा रब ठहराते हो!” फिर जब वह छिप गया तो बोला, “छिप जानेवालों से मैं प्रेम नहीं करता।” (76)
फिर जब उसने चाँद को चमकता हुआ देखा, तो कहा, “इसको मेरा रब ठहराते हो!” फिर जब वह छिप गया, तो कहा, “यदि मेरा रब मुझे मार्ग न दिखाता तो मैं भी पथभ्रष्ट! लोगों में सम्मिलित हो जाता।” (77)
फिर जब उसने सूर्य को चमकता हुआ देखा, तो कहा, “इसे मेरा रब ठहराते हो! यह तो बहुत बड़ा है।” फिर जब वह भी छिप गया, तो कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! मैं विरक्त हूँ उनसे जिनको तुम साझी ठहराते हो। (78)
मैंने तो एकाग्र होकर अपना मुख उसकी ओर कर लिया है, जिसने आकाशों और धरती को पैदा किया। और मैं साझी ठहरानेवालों में से नहीं।” (79)
उसकी क़ौम के लोग उससे झगड़ने लगे। उसने कहा, “क्या तुम मुझसे अल्लाह के विषय में झगड़ते हो? जबकि उसने मुझे मार्ग दिखा दिया है। मैं उनसे नहीं डरता, जिन्हें तुम उसका सहभागी ठहराते हो, बल्कि मेरा रब जो कुछ चाहता है वही पूरा होकर रहता है। प्रत्येक वस्तु मेरे रब की ज्ञान-परिधि के भीतर है। फिर क्या तुम चेतोगे नहीं? (80)
और मैं तुम्हारे ठहराए हुए साझीदारों से कैसे डरूँ, जबकि तुम इस बात से नहीं डरते कि तुमने अल्लाह का सहभागी उस चीज़ को ठहराया है, जिसका उसने तुमपर कोई प्रमाण अवतरित नहीं किया? अब दोनों फ़रीक़ों में से कौन अधिक निश्चिन्त रहने का अधिकारी है? बताओ यदि तुम जानते हो। (81)
जो लोग ईमान लाए और अपने ईमान में किसी (शिर्क) ज़ुल्म की मिलावट नहीं की, वही लोग हैं जो भय मुक्त हैं और वही सीधे मार्ग पर हैं।” (82)
यह है हमारा वह तर्क जो हमने इबराहीम को उसकी अपनी क़ौम के मुक़ाबले में प्रदान किया था। हम जिसे चाहते हैं दर्जों (श्रेणियों) में ऊँचा कर देते हैं। निस्संदेह तुम्हारा रब तत्वदर्शी, सर्वज्ञ है। (83)
और हमने उसे (इबराहीम को) इसहाक़ और याक़ूब दिए; हर एक को मार्ग दिखाया – और नूह को हमने इससे पहले मार्ग दिखाया था, और उसकी सन्तान में दाऊद, सुलैमान, अय्यूब, यूसुफ़, मूसा और हारून को भी – और इस प्रकार हम शुभ-सुन्दर कर्म करनेवालों को बदला देते हैं – (84)
और ज़करिया, यह्या, ईसा और इलयास को भी (मार्ग दिखलाया) । इनमें का हर एक योग्य और नेक था। (85)
और इसमाईल, अलयसअ, यूनुस और लूत को भी। इनमें से हर एक को हमने संसार वालों के मुक़ाबले में श्रेष्ठता प्रदान की।(86)
और उनके बाप-दादा और उनकी सन्तान और उनके भाई-बन्धुओं में भी कितने ही लोगों को (मार्ग दिखाया) । और हमने उन्हें चुन लिया और उन्हें सीधे मार्ग की ओर चलाया। (87)
यह अल्लाह का मार्गदर्शन है, जिसके द्वारा वह अपने बन्दों में से जिसको चाहता है मार्ग दिखाता है, और यदि उन लोगों ने कहीं अल्लाह का साझी ठहराया होता, तो उनका सब किया-धरा अकारथ हो जाता। (88)
वे ऐसे लोग हैं जिन्हें हमने किताब और निर्णय-शक्ति और पैग़म्बरी प्रदान की थी (उसी प्रकार हमने मुहम्मद को भी किताब, निर्णय-शक्ति और पैग़म्बरी दी है) । फिर यदि ये लोग इसे मानने से इनकार करें, तो अब हमने इसको ऐसे लोगों को सौंपा है जो इसका इनकार नहीं करते।(89)
वे (पिछले पैग़म्बर) ऐसे लोग थे, जिन्हें अल्लाह ने मार्ग दिखाया था, तो तुम उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करो। कह दो, “मैं तुमसे उसका कोई प्रतिदान नहीं माँगता। वह तो सम्पूर्ण संसार के लिए बस एक प्रबोध है।” (90)
उन्होंने अल्लाह की क़द्र न जानी, जैसी उसकी क़द्र जाननी चाहिए थी, जबकि उन्होंने कहा, “अल्लाह ने किसी मनुष्य पर कुछ अवतरित ही नहीं किया है।” कहो, “फिर वह किताब किसने अवतरित की, जो मूसा लोगों के लिए प्रकाश और मार्गदर्शन के रूप में लाया था, जिसे तुम पन्ना-पन्ना करके रखते हो? उन्हें दिखाते भी हो, परन्तु बहुत-सा छिपा जाते हो। और तुम्हें वह ज्ञान दिया गया, जिसे न तुम जानते थे और न तुम्हारे बाप-दादा ही।” कह दो, “अल्लाह ही ने,” फिर उन्हें छोड़ो कि वे अपनी नुक्ताचीनियों से खेलते रहें। (91)
यह किताब है जिसे हमने उतारा है; बरकतवाली है; अपने से पहले की पुष्टि में है (ताकि तुम शुभ-सूचना दो) और ताकि तुम केन्द्रीय बस्ती (मक्का) और उसके चतुर्दिक बसनेवाले लोगों को सचेत करो और जो लोग आख़िरत पर ईमान रखते हैं, वे इसपर भी ईमान लाते हैं। और वे अपनी नमाज़ की रक्षा करते हैं। (92)
और उस व्यक्ति से बढ़कर अत्याचारी कौन होगा, जो अल्लाह पर मिथ्यारोपण करे या यह कहे कि “मेरी ओर प्रकाशना (वह्य,) की गई है,” हालाँकि उसकी ओर भी प्रकाशना न की गई हो। और उस व्यक्ति से (बढ़कर अत्याचारी कौन होगा) जो यह कहे कि “मैं भी ऐसी चीज़ उतार दूँगा, जैसी अल्लाह ने उतारी है।” और यदि तुम देख सकते, तुम अत्याचारी मृत्यु-यातनाओं में होते हैं और फ़रिश्ते अपने हाथ बढ़ा रहे होते हैं कि “निकालो अपने प्राण! आज तुम्हें अपमानजनक यातना दी जाएगी, क्योंकि तुम अल्लाह के प्रति झूठ बका करते थे और उसकी आयतों के मुक़ाबले में अकड़ते थे।” (93)
और निश्चय ही तुम उसी प्रकार एक-एक करके हमारे पास आ गए, जिस प्रकार हमने तुम्हें पहली बार पैदा किया था। और जो कुछ हमने तुम्हें दे रखा था, उसे अपने पीछे छोड़ आए और हम तुम्हारे साथ तुम्हारे उन सिफ़ारिशियों को भी नहीं देख रहे हैं, जिनके विषय में तुम दावे से कहते थे, “वे तुम्हारे मामले में (अल्लाह के) शरीक हैं।” तुम्हारे पारस्परिक सम्बन्ध टूट चुके हैं और वे सब तुमसे गुम होकर रह गए, जो दावे तुम किया करते थे। (94)
निश्चय ही अल्लाह दाने और गुठली को फाड़ निकालता है, सजीव को निर्जीव से निकालता है और निर्जीव को सजीव से निकालनेवाला है। वही अल्लाह है – फिर तुम कहाँ औंधे हुए जाते हो? – (95)
पौ फाड़ता है, और उसी ने रात को आराम के लिए बनाया और सूर्य और चन्द्रमा को (समय के) हिसाब का साधन ठहराया। यह बड़े शक्तिमान, सर्वज्ञ का ठहराया हुआ परिणाम है। (96)
और वही है जिसने तुम्हारे लिए तारे बनाए, ताकि तुम उनके द्वारा स्थल और समुद्र के अंधकारों में मार्ग पा सको। जो लोग जानना चाहें उनके लिए हमने निशानियाँ खोल-खोलकर बयान कर दी हैं। (97)
और वही तो है, जिसने तुम्हें अकेली जान पैदा किया। अतः एक अवधि तक ठहरना है और फिर सौंप देना है। उन लोगों के लिए, जो समझे हमने निशानियाँ खोल-खोलकर बयान कर दी हैं। (98)
और वही है जिसने आकाश से पानी बरसाया, फिर हमने उसके द्वारा हर प्रकार की वनस्पति उगाई; फिर उससे हमने हरी-भरी पत्तियाँ निकालीं और तने विकसित किए, जिससे हम तले-ऊपर चढ़े हुए दाने निकालते हैं – और खजूर के गाभे से झुके पड़ते गुच्छे भी – और अंगूर, ज़ैतून और अनार के बाग़ लगाए, जो एक-दूसरे से मिलते-जुलते भी हैं और एक-दूसरे से भिन्न भी होते हैं। उसके फल को देखो, जब वह फलता है और उसके पकने को भी देखो! निस्संदेह ईमान लानेवाले लोगों के लिए इनमें बड़ी निशानियाँ हैं।(99)
और लोगों ने जिन्नों को अल्लाह का साझी ठहरा रखा है; हालाँकि उन्हें उसी ने पैदा किया है। और बेजाने-बूझे उनके लिए बेटे और बेटियाँ घड़ ली हैं। यह उसकी महिमा के प्रतिकूल है! यह उन बातों से उच्च है, जो वे बयान करते हैं! (100)
वह आकाशों और धरती का सर्वप्रथम पैदा करनेवाला है। उसका कोई बेटा कैसे हो
सकता है, जबकि उसकी पत्नी ही नहीं? और उसी ने हर चीज़ को पैदा किया है और
उसे हर चीज़ का ज्ञान है।(101) |
वही अल्लाह तुम्हारा रब; उसके सिवा कोई पूज्य नहीं; हर चीज़ का स्रष्टा है;
अतः तुम उसी की बन्दगी करो। वही हर चीज़ का ज़िम्मेदार है। (102) |