Skip to content

इब्राहीम की 2 निशानी : रास्त्बाज़ी

  • by

अल्लाह की जानिब से हम को क्या कुछ ज़रूरत है ? इस सवाल के लिए कई एक जवाब हैं, मगर आदम की निशानी हम को याद दिलाती है कि हमारी सब से पहली और सब से बड़ी ज़रुरत रास्त्बाज़ी  है। यहाँ हम उन अलफ़ाज़ को देखते हैं जो बराहे रास्त हमारी तरफ़ मुखातब है (बनी आदम)।

  हे आदम के बच्चों! हमने आपकी लाज को ढंकने के लिए आपको शुभकामनाएँ दी हैं, साथ ही साथ आपके लिए श्रंगार भी किया है। लेकिन धार्मिकता की छाप – यही सबसे अच्छा है। ऐसे अल्लाह के संकेतों में से हैं, कि उन्हें नसीहत मिल सकती है।

सूरत 7:26

तो फिर ‘रास्त्बाज़ी’ क्या है ? तौरेत अल्लाह कि बाबत हम से कहती है कि (इसतिसना 32:4)

मैं यहोवा के नाम की घोषणा करूंगा।
ओह, हमारे भगवान की महानता की प्रशंसा करो!
वह रॉक है, उसके काम एकदम सही हैं,
और उसके सभी तरीके सिर्फ हैं।
एक वफादार ईश्वर जो गलत नहीं करता,
ईमानदार और बस वह है।

यह अल्लाह की रास्त्बाज़ी की तस्वीर है जिसको तौरेत में बयान किया गया है ।रास्त्बाज़ी के मायने हैं वह जो कामिल है; यानि मुकम्मल तोर से कामिल; (थोड़ा या ज़ियादा नहीं बल्कि तमाम कमाल) जिसकी राहें सच्ची हैं ,जिसमें थोड़ी सी भी,नाम के लिए भी बुराई नहीं पाई जाती; जो कि बरहक़ है। यह है रास्त्बाज़ी जिसतरह से अल्लाह के बारे में तौरेत ज़िकर करती है। मगर सवाल यह है कि हमको रास्त्बाज़ी कि क्या ज़रुरत है और क्यूँ ज़रुरत है? इस का जवाब पाने के लिए हम एक ज़बूर का हवाला देखेंगे। ज़बूर 15 जिसको हज़रत दाऊद (अलै.) ने लिखा है इसे हम इस तरह से पढ़ते हैं:

प्रभु, आपके पवित्र तम्बू में कौन रह सकता है?
  आपके पवित्र पर्वत पर कौन रह सकता है?

   2 जिसकी राह चलती है, वह निर्दोष है,
    जो धर्मी है,
   जो उनके दिल से सच बोलता है;
    3 जिसकी जीभ में कोई बदनामी न हो,
    जो पड़ोसी के लिए गलत नहीं है,
    और दूसरों पर कोई गाली नहीं डालता;
     4 जो एक वीभत्स व्यक्ति का तिरस्कार करता है
    जो प्रभु से डरते हैं उनका आदर करते हैं;
    जो दर्द होने पर भी शपथ रखता है,
    और उनका मन नहीं बदलता है;
    5 जो बिना ब्याज के गरीबों को पैसा उधार देता है;
    जो निर्दोष के खिलाफ रिश्वत स्वीकार नहीं करता है …

  जब यह पूछा जाता है कि कौन अल्लाह के ‘मुक़द्दस पहाड़’ पर रह सकता है, तो दुसरे तरीके से यह पूछा जाता है या इस सवाल का दूसरा पहलू यह है कि ‘अल्लाह के साथ कौन जन्नत में रहेगा’? तो हम देख सकते हैं कि इस का जवाब यह है कि “वह जो बे गुनाह और ‘रास्त्बाज़’ है (आयत 2)। वह शख्स अल्लाह के साथ जन्नत में दाखिल हो सकता है। इसी लिए हम को रास्त्बाज़ी की ज़रूरत है। रास्त्बाज़ी की ज़रुरत इस लिए भी है क्यूंकि खुद अल्लाह कामिल है।

अब इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की दूसरी निशानी पर गौर करें। किताबों से इबारत को खोलने के लिए यहाँ पर किलिक करें। तौरेत शरीफ़ और कुरान शरीफ़ की आयतों को पढने के बाद हम देखते हैं कि इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) अल्लाह के रास्ते पर चले (सूरा 37:83) और ऐसा करते हुए उस ने ‘रास्त्बाज़ी’ हासिल की (पैदाइश 15:6)। यही बात आदम कि निशानी में भी हम से कहा गया था कि हमें रास्त्बाज़ी की ज़रुरत है। सो अहम् सवाल हमारे लिए यह है कि : उसने इसे किस तरह हासिल किया ?

अक्सर मैं सोचता हूँ कि मै रास्त्बाज़ी को दो रास्तों में से एक को चुनने के ज़रिये हासिल करता हूँ पहले रास्ते में (मेरे ख़यालात में) अल्लाह के वजूद पर ईमान लाने के ज़रिये या उसे तस्लीम करने के ज़रिये मैं रास्त्बाज़ी को हासिल करता हूँ। मैं अल्लाह पर ‘ईमान’ लाता हूँ। इस ख़याल का सहारा लेते हुए क्या हम तौरेत में ऐसा नहीं पढ़ते कि इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) खुदावंद पर ईमान नहीं लाए थे? देखें (पैदाइश 15:6) मगर कुछ और गौर ओ फ़िक्र के साथ मैं ने यह महसूस किया है कि ईमान लाने का मतलब सिर्फ़ यह नहीं कि एक वाहिद ख़ुदा के वजूद पर ईमान लाना – नहीं बल्कि अल्लाह ने उसको एक पक्का वायदा किया था कि वह अपना एक बेटा हासिल करेगा। और वह एक ऐसा वायदा था जिस के लिए इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) को चुनना था कि वह इस पर ईमान लाएं या नहीं। इस की बाबत आगे सोचें कि शैतान या इब्लीस भी अल्लाह के वजूद पर ईमान रखता है। और यह यकीन के साथ कहा जा सकता है कि उस के अन्दर कोई रास्त्बाज़ी नहीं है। सो सादगी के साथ अल्लाह के वजूद पर ईमान लाना ही ‘किसी मसले का हल’ नहीं है। मतलब यह कि इतना ही काफ़ी नहीं है।

दूसरा रासता जो मैं अक्सर सोचता हूँ वह यह है कि रास्त्बाज़ी को मैं अपनी क़ाबिलियत से हासिल कर सकता हूँ या मैं इसको नेक काम या मज़हबी कामों को करने के ज़रिये अल्लाह से कमा सकता हूँ जैसे बुरे कामों की निस्बत भले कामों को ज़ियादा करना, नमाज़ अदा करना, रोज़े रखना या किसी तरह के मज़हबी कामों को अंजाम देना मुझे इजाज़त देता है कि मैं रस्त्बाज़ी हासिल करने का हक़दार बनू, कमाऊं या क़ाबिल बनूं। मगर गौर करें तौरेत शरीफ़ इस तरह से हरगिज़ नहीं कहती।

अबराम खुदावंद पर ईमान लाया और उसने [यानी कि अल्लाह ने] उसके लिए [यानी इब्राहीम अलै. के लिए] रास्त्बाज़ी गिना गया।

पैदाइश15:6

इब्राहीम (अलै.) ने रास्त्बाज़ी को कमाया नहीं था बल्कि यह उसके लिए ‘शुमार किया गया’ था। सो इन दोनों में क्या फ़रक़ है? सहीह मायनों में देखा जाए, अगर कोई चीज़ ‘कमानी’ है तो आप उस के लिए काम करते हैं फिर आप उसके मुस्तहक़ होते हैं। यह बिलकुल उसी तरह है जैसे आप मेहनत करते हैं तो आप मज़दूरी के हक़दार होते है। पर अगर आप के नाम कोई चीज़ जमा की जाती या मंसूब की जाती है तो यह आप को अता की जाती है। यह आप का कमाया हुआ नहीं है या आप मुस्तहक़ नहीं थे।

इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) वह शख्स थे जो गहराई से अल्लाह (वाहिद ख़ुदा) के वजूद पर ईमान लाए थे। वह दुआ बंदगी करने वाले और दूसरों की मदद करने वाले थे। जैसे कि वह अपने भतीजे लूत/लोट की मदद करते और उस के लिए दुआ करते थे। यह वह बातें हैं जिन का हम इनकार नहीं कर सकते। मगर जो कुछ इब्राहीम के तोर तरीके की बाबत बताया वह बहुत ही सीधा साधा जिन्हें हम तक़रीबन चूक जाते हैं। तौरेत हम से कहती है कि इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) रास्त्बाज़ी इसव लिए अता हुई क्यूंकि उन्हों ने अल्लाह के वायदों पर यकीन किया था। रास्त्बाज़ी हासिल करने की बाबत जो भी हमारी आम समझ है यह उसको मंसूख करता है चाहे इस सोच के ज़रिये से कि अल्लाह के वजूद पर ईमान रखना ही काफी है या किसी हद तक नेक काम और मज़हबी सरगर्मियां (नमाज़, रोज़ा वगैरा) इन्हें बजा लाने से हम रास्त्बाज़ी को कमा सकते या उसके हक़दार हो सकते हैं। मगर याद रखें कि इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) ने इस रास्ते को नहीं अपनाया था। उन्हों ने सादगी से अल्लाह के वायदे पर यक़ीन करने को चुना।

अब आप देखें कि एक बेटा इनायत किये जाने के वायदे पर यकीन करने का चुनाव शायद एक सीधी बात हो सकती थी मगर यह यक़ीनी तोर से आसान नहीं था। इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) आसानी वायदे कि परवाह किये बगैर रह सकते थे इस सबब से कि हक़ीक़त में अल्लाह उसे एक बेटा देने की कुदरत रखता है तो उसी वक़्त उसे इनायत करे क्यूंकि इस दौरान इब्राहीम और उसकी बीवी सारा इतने उमरज़दह हो चुके थे कि बच्चे का होना ना मुमकिन था। इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की पहली निशानी में उसकी उम्र 75 साल से ऊपर थी जब उस ने अपने मुल्क को छोड़ा था और कनान में पहुंचा था। उस वक़्त अल्लाह ने उसको वादा किया था कि उस से एक बहुत ‘बड़ी कौम’ बनेगी। इस वायदे के बाद कई एक साल गुज़र चुके थे और वह दोनों उमर रसीदा हो चुके थे और डर हक़ीक़त उन्हों ने पहले से ही बहुत ज़ियादा इंतज़ार किया था। और अभी तक उनके एक बच्चा भी नहीं हुआ था तो एक ‘बड़ी कौम’ की बात कैसे हो सकती थी? “अगर अल्लाह को एक बड़ी कौम ही बनाना था तो उसने पहले से ही एक बेटा क्यूँ नहीं दिया” ? उसको शायद ताज्जुब लगा होगा। दुसरे लफ़्ज़ों में हालांकि उसके एक बेटा होने के वादे पर यकीन तो किया था मगर गालिबन उसके दमाग में वायदे की बाबत जवाब न मिलने वाले सवालात थे। उसने वायदे पर यकीन किया था इसलिए कि वायदे का देने वाला अल्लाह था – हालाँकि वह वायदे की हर बात को समझता नहीं था। मगर बुढापे की  उम्र में बच्चा होने के इस वायदे पर यकीन करने के लिए उसे और उसकी बीवी को ज़रुरत थी कि वह अल्लाह के एक मोजिज़े पर ईमान लाए कि वह एक मोजिज़े को अंजाम दे।

वायदे पर ईमान रखना सरगरम होकर इंतज़ार करने का भी तक़ाज़ा करता है। उसकी पूरी ज़िन्दगी एक तरह से दखलंदाज़ थी जब वह कनान के वायदा किये हुए मुल्क में खेमों में सालों तक इंतज़ारी में अपने दिन गुज़ार रहा था कि वायदा किया हुआ बेटा उसे मिल जाए। यह उस के लिए बड़ा आसान हो जाता अगर वह अल्लाह के वायदे को इल्तिफ़ात कर जाता और मसोपतामिया (मौजूदा इराक़) में अपने घर वापस चला जाता जिसे वह बहुत सालों पहले छोड़ चुका था जहां उस के भाई और उस का ख़ानदान और दीगर रिश्तेदार अभी भी खयाम करते थे। सो इब्राहीम (अलै.) को मुश्किलों के साथ जीना पड़ रहा था ताकि वायदे पर ईमान रखना जारी रखे। हर एक घड़ी और हर एक दिन बल्कि कुछ साल तक जबकि वह वायदे के पूरा होने का इंतज़ार कर रहा था – वायदे पर का उसका भरोसा बहुत बड़ा था जो कि ज़िन्दगी के आम हुसूल (जैसे तस्कीन और फ़लाह व बहबूद) पर फौकिय्क्त हासिल था। हकीकी मायनों में वायदे के पेशबंदी में जीना इस का मतलब था कि ज़िन्दगी के आम हुसूल के लिए मरना। वायदे पर ईमान रखने के ज़रिये वह अपने भरोसे और अल्लाह के लिए महब्बत दोनों का इज़हार कर रहा था।

इस तरह वायदे पर यक़ीन करना यह सिर्फ़ उस के लिए दिमाग़ी समझोते से बाहर जा रहा था। इब्राहीम (अलै.) को  अपनी ज़िन्दगी, शोहरत, मुहाफ़िज़त, हाल के अमल और उम्मीदों को इस वायदे पर मुताक्बिल के लिए जोखों में डालने की ज़रुरत थी। क्यूंकि उसने मुस्तअद्दी और फ़रमानबरदारी से इंतज़ार किया था।             

यह निशानी बताती है कि किस तरह इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) ने अल्लाह के उस वायदे पर ईमान लाया जो एक बेटे के अता करने की बाबत थी और ऐसा करने के ज़रिये उसको अता भी हुई और रास्त्बाज़ी उस के नाम शुमार किया गया। सही मायनों में देखा जाए तो इब्राहीम (अलै.) ने खुद को इस वायदे के लिए मख़सूस किया था। उस के पास चुनाव था कि वायदे की परवाह न करता और अपने मुल्क (मौजूदा इराक़) में वापस चला जाता जहां से वह वापस आया था। और वह ऐसा भी कर सकता था कि उस वायदे की परवाह न करता जबकि अभी भी अल्लाह के वजूद पर ईमान रखे हुए था, अभी भी नमाज़ रोज़े की पाबंदी और दूसरों की मदद करनी जारी थी – मगर इसके बाद अगर वह सिर्फ़ अपने मज़हब पर काइम रहता मगर उसको ‘रास्त्बाज़ी’ में शुमार नहीं किया जाता। और जिस तरह कुरान शरीफ़ कहता है “हम सब जो आदाम की औलाद हैं – रास्त्बाज़ी के पोशाक हैं – जो कि बहुत ही उमदा है” – यह इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) का रासता था।

हम ने रस्त्बाज़ी की बाबत बहुत कुछ सीखा है जो कि जन्नत में दाखिल होने के लिए ज़रूरी है और यह कमाया नहीं जाता बल्कि हमारे लिए शुमार किया जाता है। और यह अल्लाह के वायदे पर भरोसा करने के ज़रिये शुमार किया जाता है ।मगर सवाल यह है कि रस्त्बाज़ी के लिए कौन क़ीमत चुकाएगा ? हम निशानी 3 के साथ जारी रखेंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *